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होने का कारण पूछा। भगवान् के उपदेश से राजा की जिज्ञासा का समाधान हुआ ।
आचार्य समन्तभद्र देव कहते हैं कि हे भव्यजीवो! आप निरन्तर जिनेन्द्र भगवान की भक्ति करो । यह जिनेन्द्र भक्ति ही इच्छित पदार्थों को देने वाली है और काम-वासना जनित दाह को शान्त करने वाली है।
जिनेन्द्र भगवान् की भक्ति मुक्तिवधू से मिलाने वाली सखी है। पुण्य की प्राप्ति जिनेन्द्र भक्ति से होती है । इस पुण्य का तात्कालिक फल तो संसार के सुखों की प्राप्ति है और पारम्परिक फल मोक्ष की प्राप्ति है।
भगवान् आदिनाथ के जीव ने दश भव पूर्व में गृहस्थ अवस्था में ही संन्यास लेकर पंच परमेष्ठी की आराधना कर तीर्थंकर बनने का बीज बोया था। भगवान् नेमिनाथ का जीव भी अपने पूर्व भव में जिनेन्द्र भगवान् की तीव्र भक्ति करता था। जब यह जीव अपराजित चक्रवर्ती की पर्याय में था, तब इनके पिता और विमलवाहन भगवान् को मोक्ष की प्राप्ति हुई। यह जानकर अपराजित ने तीन दिन का उपवास धारण कर निर्वाण भक्ति की। बाद में राजा अपराजित कुबेर के द्वारा समर्पित जिन प्रतिमा एवं चैत्यालय में विराजमान अर्हत्प्रतिमा की पूजा कर उपवास करके जिनालय में अपनी स्त्रियों को धर्मोपदेश देता था। एक बार जिन मन्दिर में दो चारण ऋद्धिधारी मुनिराज आए । मुनिराज ने अपने और राजा के पूर्वभवों को बताया तथा अन्त में कहा कि तुम्हारी आयु एक माह शेष रह गयी है। इसलिए आत्महित करो। चारण ऋद्धिधारी मुनिराज के वचन सुनकर राजा अपराजित हर्षित हुआ और चिरकाल तक इस बात की चिन्ता करता रहा कि अहो ! मेरा तप करने का समय व्यर्थ निकल गया। ऐसा सोचकर वह आठ दिन तक जिनेन्द्र भगवान् की पूजा करता रहा और अन्त में प्रीतिंकर नामक पुत्र के लिए राज्यलक्ष्मी सौंपकर शरीरादि से नि:स्पृह हो गया। तत्पश्चात् प्रायोपगमन संन्यास धारण कर बाईस दिन रात तक चारों आराधनाओं की आराधना कर वह अच्युत स्वर्ग में बाईस सागर की आयु का धारक इन्द्र पद को प्राप्त हुआ । यही अपराजित का जीव इससे पाँचवें भव में हरिवंश के तिलक भगवान् नेमिनाथ तीर्थंकर हुआ है।
जिनभक्ति से भरा यह जीव यदि देव पर्याय में भी जाता है तो वहाँ भी अकृत्रिम चैत्यालयों की भक्ति करता है। मनुष्य पर्याय में जब तक गृहस्थ रहता है तब तक पात्रदान, पूजा, जिनप्रतिमा, जिनचैत्यालय को सारभूत मानकर धर्म करता है। मुनि होने पर तप से श्रेष्ठ होकर निःस्पृहता से चार आराधना को करता है ।
इसी तरह पार्श्वनाथ का जीव भी अपने पिछले भव में ऐसी ही अद्भुत जिनेन्द्र भक्ति करता था । हे भव्य ! इन्हीं महापुरुषों के पथ पर चलकर तुम भी ऐसे ही महान् बनो ।
अरिहंत भक्ति की विशेषता
अरिहंताणं भत्ती मोहविस-विणासणी य सोक्ख करी । मुच्छाकाम मदालस- दूरगा पुण्णं समासवदि ॥ २ ॥
मोह महा विष आतम भीतर पग-पग मूर्छित करता है