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सताते रहते हैं। उनका धर्म में चित्त न लगने से अपनी आत्म समाधि का प्रयोजन पूर्ण नहीं होता है। चित्त का सदैव शान्त और कर्म बन्ध से मुक्त रहना ही साधु की सदा समाधि है। श्रद्धा से अपने चित्त को ऐसी धर्म भावना में दृढ़ किए रखना साधु समाधि भावना है।
साधु समाधि में संलग्न प्राणी को और क्या करना चाहिए?
दीवसिखेव हत्थेण अथिरचित्तस्स संबलणदाणं। करणीयमवस्सं खलु साहुसमाहिभावलग्गस्स॥७॥
मन चंचल है जिस साधक का विचलित होता रहता जो निजमति बल से मृदुवचनों से उसको संबल देता जो। मानो पवन वेग से दीपक बचा रहा देकर कर ओट साधु समाधि भावना भाता देकर के आवश्यक चोट॥७॥
अन्वयार्थ : [हत्थेण] हाथ से [दीवसिखा इव] दीपक की लौ की तरह [ अथिरचित्तस्स] अस्थिर चित्त वाले को [संबलणदाणं] संबल प्रदान करना [खलु ] निश्चित ही [साहुसमाहिभावलग्गस्स] साधु समाधि के भाव में लगे जीव को [अवस्सं] अवश्य [करणीयं] करने योग्य है।
भावार्थ : केवल अन्त समय में समाधि धारण कर लेना या अपने आत्मा की निर्विकल्प अवस्था में रहना ही साधु समाधि नहीं है किन्तु जो साधु अपनी आत्म भावना से स्खलित हो रहा हो, अपने चित्त की अस्थिरता के कारण वह मार्ग से दूर हो रहा हो उस साधु को संबल प्रदान करना साधु समाधि भावना है। जिस तरह बुझते हुए या हिलते हुए दीपक की लौ को हाथ की ओट देकर बचाया जाता है उसी तरह अन्य साधु को देखकर उसे स्थिर करने के लिए अवश्य ही सहारा देना चाहिए। अन्य साधक को जो साधक सन्मार्ग पर लगाए रखता है वह साधु समाधि भावना में संलग्न है, यह जानना।
साधु समाधि भावना में युक्त साधक और क्या चिन्तन करे ?
अथिरो खलु मणुजभवो परिहरदव्वो परप्परं कलहो। आदवदं संभालिय साहुसमाहिभावलग्गस्स॥ ८॥
सबका चित्त रहे अपने में जो विचारता रखे विचार यहमानुष तन अस्थिरसबका आपस की सब कलह सुधार। अपने व्रत का ध्यान धारकर निज हित का जो करे विचार साधु समाधि भावना उसकी कर देती है भव से पार॥८॥