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समासदो भण्णदि आदसुद्धी॥ ८॥
तप तपने का मुख्य कार्य है पाप हानि अठविध विधि की आत्म भावना देती सबको मोह हानि फिर चिर अघ की। तपो भावना ज्ञान भावना दोनों का संयोग बने आत्मशुद्धिहोनिज स्वभावकी उपलब्धिका योग बने॥८॥
अन्वयार्थ :[तवस्स] तप का[कजं] कार्य[किल] वास्तव में[पावहाणी] पाप की हानि है[अज्झप्पकजं] अध्यात्म का कार्य [ चिरमोह-हाणी] चिरकालीन मोह की हानि है। [ दोण्हं वि] दोनों के [ जोगेण ] संयोग से [सहावलद्धी] स्वभाव की प्राप्ति होती है [ समासदो] संक्षेप से [आदसुद्धी] आत्मा की शुद्धि [भण्णदि] ऐसी कही है।
भावार्थ : तप का कार्य मुख्य रूप से पाप का नाश होना है। पाप का क्षय तप का कार्य है। अध्यात्म के योग से चिरकाल से लगे हुए मोह का विनाश करना है। यह अध्यात्म योग ही वस्तुतः अन्तरंग तप है। इस तरह बाह्य तप
और अन्तरंग तप के संयोग से ही स्वभाव की उपलब्धि होती है। स्वभाव अर्थात् आत्मा के स्वरूप की उपलब्धि होना ही आत्म शुद्धि है। तप के विषय में यह बात संक्षेप से कही है।