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देखो! वशिष्ठ मुनि एक-एक महीने के उपवास करके पारणा के लिए नगर में आते थे। नगर के राजा ने कहा कि ऐसे तपस्वी मुनि की पारणा हम ही कराएंगे। पारणा के दिन राजा किसी कार्य में व्यस्त हो गया। मुनि आए
और आहार लाभ न हुआ तो लौट गए। पुनः एक माह का उपवास किया और पारणा के लिए उसी नगर में गए। राजा ने पुनः कहा कि पारणा मैं ही कराऊँगा। उसी दिन कहीं आग लग जाने से राजा उस प्रजा रक्षा के कार्य में पारणा कराना भूल गया। मुनिराज चले गए। ऐसा तीन बार हुआ। मुनि को पारणा लाभ नहीं हुआ। तीसरा बार जब नगर से बिना आहार के लौटते हुए जा रहे थे तो एक बुढ़िया ने कहा देखो! यह राजा तो मुनि के प्राण ही लेना चाहता है। किसी को आहार देने नहीं देता और स्वयं भी नहीं देता है। इतनी बात मुनि के कानों में पड़ी तो वह आग बबूला हो गए। मुनि ने निदान बंध कर लिया इस राजा से मैं बदला अवश्य लूँगा। वह वशिष्ठ मुनि मरण करके कंस राजा बना। उसके बाद उसने अपने पिता को ही कारागार में डाल दिया। इतना दुर्धर तप और बुढ़िया की बात सुनने मात्र से इतनी तीव्र क्रोध कषाय का परिणाम। अहो! आत्मन् ! तप करने से मन की शक्ति कम भी हो सकती है और यदि अपने कर्म विपाक का ध्यान रहे तो मन की शक्ति आत्मा की शक्ति में समाहित होकर अनन्त हो जाती है। वशिष्ठ मुनि के पास इतनी शक्ति थी कि उन्हें तीन बार आहार नहीं मिलने पर भी कोई खेद नहीं हुआ किन्तु बुढ़िया की बात सुनकर कषाय उत्पन्न हो गई। हे आत्मन् ! ऐसा पुरुषार्थ कर कि ऐसे किसी की बात सुनकर किसी के प्रति कषायाग्नि न भड़क उठे। यही सबसे बड़ी तपस्या है। तप करने का फल कषाय रहित आत्म स्वरूप के निकट पहुँचना और अपने सहज शान्त स्वभाव में रमण करना है। जिस तप-त्याग से मन में क्षमा भाव बढ़े, लोभ-लालच क्षीण हो जाए और मृदुता-ऋजुता का सागर उमड़ने लगे वही सम्यक् तप है।
__ हे आत्मन् ! अपने आत्म हित के कार्य को छोड़कर अन्य कार्य करने में तुझे कितना आवेग उत्पन्न होता है। तेरी बुद्धि किसने हर ली है जो श्रावक होकर भी निश्चिन्तता से भगवान् की पूजा नहीं कर सकता है। कोई
न में रहता है तो पूजा स्वाध्याय में उसे याद रखता है कि मुझे वहाँ जाना है, उनसे मिलना है, दुकान खोलना है, माल खरीदना है, पेमेन्ट देना है, डाक्टर के पास जाना है, बच्चे को स्कूल छोड़ना है, भोजन बनाना है, घर का काम देखना है, न जाने कितने विकल्प, कितने आवेग के साथ जल्दी-जल्दी तू मन्दिर से निकलकर भागना चाहता है। तूने अपने जीवन को इन क्रिया-कलापों में उलझाकर बरबाद कर लिया है। तेरे इन विकल्पों के कारण तुझे कभी भी संवेग भावना उत्पन्न नहीं हो सकती है। संवेग का अर्थ है- धर्म और धर्म के फल में हर्षित होना। तुझे धर्म में हर्ष कहाँ? यह तेरे मन में धर्म से आनन्द उत्पन्न होता तो तू लाख कार्य छोड़कर भी धर्म करता। तेरे मन में धर्म का बहुमान यदि होता तो तू आकुलता से पूजा नहीं करता। पूजा करते हुए प्रत्येक अर्घ पर यह नहीं सोचता कि अब चार अर्घ और बचे हैं, एक जयमाला बची है। पूजक को पूजा में जब हर्ष उत्पन्न होता है तो उसे एक पूजा भी बहुत देर तक करने का मन होता है। पूजा-धर्म से जब आनन्द आता है तो और पढूँ, और भाव करूँ, और अच्छे भाव लगाऊँ, ऐसा आनन्दित होता है। श्रावक के अन्दर जब तक घर-व्यापार के कार्यों को करने का तीव्र आवेग रहता है तब तक वह धर्म के विषय में खानापूर्ति करता है। श्रावक बन्धो ! विचार कर तूने जिस तरह पाप कमाने के लिए पुण्य-धर्म को छोड़ा उस तरह क्या तूने कभी पुण्य-धर्म के लिए पाप को छोड़ने की भावना की। जिस सम्यग्दृष्टि श्रावक के अन्दर संवेग भाव उत्पन्न हो जाता है वह व्यापार, गृह के कार्यों में उदासीन हो जाता है। उसे धर्म के कार्य में व्यवधान आने पर पीड़ा उत्पन्न होती है। वह गृहस्थ जीवन को धिक्कारता है। जिस गृहस्थ जीवन में सैकड़ों राग, द्वेष की तरंगों से मन क्षुब्ध रहता है, जहाँ परिवार, सगे-सम्बन्धी रूप बड़े-बड़े मगरमच्छ उछलते रहते हैं, जहाँ लोभ के महाभंवर बने हैं और जहाँ स्त्रियों के राग से चंचल बड़ी बड़ी मछलियाँ मन चुराती रहती हैं, ऐसे गृहस्थ जीवन को सम्यग्दृष्टि गृहस्थ धिक्कारता है। गृहस्थी में ध्यान कैसे हो? जब चित्त सदैव अस्थिर रहता