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पूर्ति के लिए न हो ।
मन ! तू कुछ भी मत कर। तप से शरीर को कष्ट होता है किन्तु राग-द्वेष नहीं करने से तो कोई कष्ट नहीं होता है। तुझे कुछ नहीं करना है, मत कर किन्तु राग-द्वेष भी मत कर। यदि शरीर शक्ति नहीं है तो कोई बात नहीं, अपनी ज्ञान शक्ति को बढ़ा। इस ज्ञान शक्ति से राग, द्वेष की परम्परा को रोक । शान्त स्वभावी आत्मा का अनुभव कर। अपने शान्त-सौम्य स्वभाव की भावना करके मन में उत्पन्न राग-द्वेष विभाव भावों को जीतता चल । यही सबसे बड़ा तप है । यह तप पंचम काल में भी होता है। आचार्य कहते हैं, राग, द्वेष की परिणति से मन को बचाने के लिए किसी विशेष संहनन की आवश्यकता नहीं है। पर पदार्थों की इच्छा छोड़कर, ख्याति पूजा - लाभ की वासना त्याग कर शान्त भाव से अपने स्वभाव का चिन्तन करते हुए विकारी भावों को ग्रहण मत कर।
समीचीन तप दुर्लभ है
तवकरणं खलु सुलहं दिस्सदि लोए दु अणसणादिविहं । तं संजमेण सहिदं णिरवेक्खं दुल्लहं सम्मं ॥ ५ ॥
सभी जगह पर सभी मतों में अनशन आदिक तप देखे सुलभ दीखते सभी जनों को आत्म ज्ञान से अनदेखे । जीवदया सह इन्द्रिय संयम वा शिवपथ की अभिलाषा समीचीन संयम सह तपना दुर्लभ ना हो जग आशा ॥ ५ ॥
अन्वयार्थ : [ अणसणादिविहं ] अनशन आदि के प्रकार वाला [ तवकरणं ] तप करना [ दु] तो [ लोए ] लोक में [ खलु ] निश्चित ही [ सुलहं ] सुलभ [ दिस्सदि ] दिखाई देता है [ तं ] वह तप [ संजमेण ] संयम से [ सहिदं ] सहित [ णिरवेक्खं ] निरपेक्ष [ सम्मं ] सम्यक् होना [ दुल्लहं ] दुर्लभ है।
भावार्थ : अनशन आदि बाह्य तप करने में रुचि बहुत लोगों की देखी जाती है। लोग अनशन आदि करने में उत्साहित भी रहते हैं । यह तप कठिन होते हुए भी लोक में सुलभ दिखाई देता है । वह तप यदि संयम से सहित हो तो बहुत उत्तम है। तप के साथ संयम बना रहना चाहिए । प्राणी संयम हो या इन्द्रिय संयम दोनों प्रकार के संयम का पालन तप के साथ कठिन है। तपस्वी लोग अक्सर संयम पर ध्यान नहीं देते हैं । जैसे तप करने के बाद मन चाहे आहार, रस की अभिलाषा रखना इन्द्रिय असंयम है । तप करने के बाद ईर्ष्या-समिति, आदाननिक्षेपण समिति आदि की परवाह नहीं करना प्राणी असंयम है । तप निरपेक्ष हो । अपेक्षा भी हो तो मात्र कर्म निर्जरा की और आत्म विशुद्धि की। इसके अलावा अन्य लौकिक इच्छा तप की विराधना है । इस तरह का समीचीन तप वास्तव में दुर्लभ है।
सम्यक् तप की पहिचान
कोहो लोहो माणो हीयदि जस्स तवाचरणेण पुणो ।