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उन्होंने तीन दिन के उपवास का नियम लिया और दर्भशय्या पर आरूढ हुए। इससे उन्होंने हिमवत् कूट पर रहने वाले देवों को वश में किया। वहाँ से चलकर चक्रवर्ती वृषभाचल पर्वत पर आये। वहाँ अपना नाम लिखकर विजयार्ध पर्वत की वेदिका के समीप आए तो वहाँ जाकर उन्होंने उपवास धारण किया। नमि-विनमि जो कि विजयार्ध की दोनों श्रेणियों के स्वामी थे, उन्होंने आकर भरतराज को नमस्कार किया। वहाँ से चलकर गंगा कूट के समीप आए तो उन्होंने तीन दिन का उपवास किया। यहाँ गंगादेवी ने उनका एक हजार कलशों से अभिषेक किया।
इसके बाद भरतराज म्लेच्छ राजाओं को वश करते हुए विजयाध की दूसरी गुफा खण्डकाप्रपात के समीप आए। वहाँ वे तीन दिन के उपवास का नियम लेकर ठहर गए। यहाँ नाट्यमाल देव ने उन्हें कुण्डल भेंट किये।
इस तरह बिना युद्ध किए ही देव, विद्याधर आदि को भरत चक्री ने अपने तप के प्रभाव से वश में किया। अहिंसा, संयम और तप तीनों ही धर्म है। इनके प्रभाव से देव लोग भी वश में हो जाते हैं।
पूर्व भव के बंधे हुए पाप कर्म का शमन भी तप से ही होता है। देव द्रव्य को हड़प लेने से एक रुद्रदत्त ब्राह्मण मरकर नरक गया और नरक से निकलकर वह संसार में भ्रमण करता रहा। जब उसके और अधिक पाप का उपशम हुआ तो वह एक ब्राह्मण का पुत्र गौतम हुआ। उस पुत्र के पाप की तीव्रता से उत्पन्न होते ही उसके माता-पिता मर गए। वह महा दरिद्री था। भीख माँगता हुआ इधर-उधर घूमता-फिरता था। एक बार उसने एक मुनिराज को आहार करते देखा और आहार के बाद उनके पीछे लग गया तथा आश्रम में पहुँचकर बोला कि मैं भूखा मरता हूँ। आप मुझे अपने समान बना लीजिए। मुनिराज ने उसे भव्य प्राणी जानकर दीक्षा दे दी और उसने भी दीक्षा लेकर एक हजार वर्ष की कठिन तपस्या से विघ्नकारक पापों का शमन कर दिया। तपस्या के प्रभाव से गौतम मुनि को बीज बुद्धि ऋद्धि, रस ऋद्धि, अक्षीण महानस ऋद्धि तथा पदानुसारिणी ऋद्धि प्राप्त हो गई। गौतम मुनि ने पचास हजार वर्ष तक तप किया और अन्त में समाधिमरण कर अहमिन्द्र देव हुआ। वहाँ से च्युत होकर वह जीव अन्धकवृष्णि राजा हुआ। इन्हीं अन्धकवृष्णि के दश पुत्र हुए जिनमें समुद्रविजय प्रथम थे। इन्हीं समुद्रविजय से भगवान नेमिनाथ का जन्म हुआ। समुद्रविजय को राज्य देकर अन्धकवृष्णि केवली के पादमूल में दीक्षा धारण कर लेते हैं। इस तरह यह तप अनेक अदभुत ऋद्धियों को देने वाला है। अनादि कालीन पाप कर्म का उपशमन करने वाला है। अन्तराय आदि कर्म का नाश इसी तप से होता है।
भव्यात्मन् ! यथाशक्ति तप का आचरण अवश्य करना चाहिए। तप मुनिराज का तो उत्तर गुण है। मूलगुणों में तप नहीं है फिर भी मूलगुणों के पालन के साथ तप भी होता है। कोई भी श्रमण एकान्त रूप से तप को उत्तर गुण समझकर तप से दूर रहे तो वह मूलगुण भी निर्दोष पाल नहीं सकता है। अनेक प्रकार के तप हैं उनमें ऊनोदर आदि तप तो एक बार भिक्षा चर्या से भोजन करने वाले मुनि को पालना ही पड़ता है। अन्तराय हो जाने से भी यह तप हो जाता है। केशलुंचन करना भी बहुत बड़ा काय क्लेश तप है। इस केशलोंच के साथ उपवास भी होता है। अनशन तप भी समय-समय पर आवश्यक रूप से होता है। मुनि जीवन तो तप का ही जीवन है। इसलिए मैं तो केवल अट्ठाईस मूलगुणों का ही पालन करूँगा, उत्तर गुणों का नहीं, ऐसी धारणा बनाकर मुनि मत बनना। प्रतिक्रमण में बारह प्रकार का तप, बाईस प्रकार का परीषह सहन आदि न करने पर आलोचना की जाती है। इसलिए यथाशक्ति मैं उत्तर गुणों का पालन करूँगा और मूलगुणों को निर्दोषता से धारण करूँगा, ऐसी भावना करके ही मुनि बनने का