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भावार्थ : देवों को भी स्वर्ग से मरण करते समय दुःख होता है । देवगति में भी वियोग जन्य दुःख बना रहता है। अपने से बड़े देव की अधीनता का कष्ट उठाना पड़ता है। दूसरे की ऋद्धियों को देखकर ईर्ष्यागत कष्ट होते हैं । अपने दुःख की वेदना को दूर करने के लिए इन्द्रिय सुख में रमण करते हैं।
मनुष्यों में राजा चक्रवर्ती होता है । चक्रवर्ती को भी मान भंग का दुःख भोगना पड़ता है। भरत चक्रवर्ती को अपने भाई से ही अपमान सहना पड़ा। चक्रवर्ती को अपने वैभव का त्याग करके मोक्ष पुरुषार्थ करना ही आवश्यक है अन्यथा नरक का पात्र बनते हैं। अपने मनोरथों की पूर्ति के लिए नौ निधियां चौदह रत्न होते हैं फिर भी तृप्ति नहीं होती है । ९६००० रानियों से विक्रिया करके एक साथ रमण करता है फिर भी काम वेदना दूर नहीं होती है। इतना सब कुछ होने पर भी दुःख है तभी तो उस दुःख का प्रतिकार किया जाता है । जितना ज्यादा प्रतीकार है, समझना चाहिए कि उसके मन में उतना ही ज्यादा दुःख है । अत: लोक में सुखी समझे जाने वाले जीव वस्तुत: और ज्यादा दुःखी हैं। कहा भी है
कुलिसायुह चक्कहरा सुहोवओगप्पगेहिं भोगेहिं । देहादीणं वड्डी करेंति सुहिदा इवाभिरदा ॥ ७७ ॥
अर्थात् इन्द्र और चक्रवर्ती शुभोपयोग मूलक भोगों के द्वारा देह आदि की वृद्धि करते हैं और भोगों में रत होते हुए सुखी जैसे लगते हैं
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इस तरह चिन्तन करने वाले को नया संवेग भाव उत्पन्न होता है ।
संवेग की वृद्धि और कैसे होती है ?
जिणसत्थाणं पठणे चउ अणुओगं हि रोचमाणस्स । वेरग्गं खलु वढ्ढदि संवेगो तस्स होदि णवो ॥ ६॥
प्रथम, करण अरु चरण, द्रव्य से चतु अनुयोग शास्त्र आधार इन शास्त्रों के पढ़ने से ही होता है संवेग अपार । धर्म कार्य से हो मन हर्षित भाव विराग बढ़े उर धार नए-नए संवेग भाव की बढ़ती होवे तो जग पार॥ ६॥
अन्वयार्थ : [ चउ अणुओगं ] चारों अनुयोगों की [हि ] निश्चय से [ रोचमाणस्स ] रुचि रखने वाले को जिणसत्थाणं ] जिन शास्त्रों के [ पठणे ] पढ़ने से [खलु] वास्तव में [ वेरग्गं ] वैराग्य [ वड्ढदि ] बढ़ता है [ तस्स] उसका [ संवेगो ] संवेग [ णवो ] नया [ होदि ] होता है।
भावार्थ : जिसे जिनदर्शन पर श्रद्धान होता है, उसे चारों अनुयोग रुचते हैं। प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग,