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का कोई ओर-छोर नहीं रह जाता है। इसी क्षमा भावना से तो पाण्डव जन अति दारुण उपसर्ग सहन कर भी शुक्लध्यान में लीन हो गए। जिस क्षमा भाव से शुक्लध्यान होता है उससे व्रत, शील निरतिचार बने रहें, तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है ?
ज्ञानी व्यक्ति विचार करता है कि आज दिन भर में मैंने किस प्रसंग में विकथा की, किस समय क्रोध किया, किस बात से चित्त में क्षोभ उत्पन्न किया । इत्यादि अपने विचारों को स्वयं जानकर अपनी चित्त की परिणति को स्वयं समझकर स्वयं उसे दिन-प्रतिदिन सुधारता चला जाता है । आध्यात्मिक पुरुषों के लिए अपनी चित्तवृत्ति ही प्रामाणिक होती है। उन्हें किसी और की संस्तुति या कर्णप्रिय वचनों को सुनने की आवश्यकता नहीं होती है। इस तरह जो व्यक्ति अपने दोषों को नाश करने की प्रक्रिया में सावधान है वही अन्तरात्मा है। ऐसा अन्तरात्मा ही शील, व्रतों का निरतिचार पालन करता है ।
निरतिचार व्रती की वृत्ति कैसी होती है ?
वदं गिहीदं खलु अप्पणा जं तदप्परूवं मुणदीट्ठसेवी । तेसूत्थदोसो णियपाणपीडा तस्सेव सीलं अइचारमुत्तं ॥८॥
ग्रहण नहीं व्रत किये हैं मैंने किन्तु मुझे हैं प्राण मिले व्रत मेरा आतम स्वरूप है व्रत सेवन से त्राण मिले। व्रत- संयम में दोष लगाना निज प्राणों की पीड़ा है यह विचारता उसी व्रती का दोष रहित व्रत बीड़ा है ॥ ८ ॥
अन्वयार्थ : [ अप्पणा ] आत्मा ने [ जं] जो [ वदं ] व्रत [ गिहीदं ] ग्रहण किया है [ खलु ] निश्चय से [ तदप्परूवं ] उसे आत्म रूप [ मुणदि ] मानता है । [ इट्ठसेवी ] इष्ट की सेवा करने वाला [ तेसु ] उन व्रतों में [ उत्थदोसो ] उत्पन्न दोष को [णियपाणपीडा ] अपने प्राण की पीड़ा मानता है [ तस्स एव ] उसका ही [ सीलं ] शील [ अइचारमुत्तं ] अतिचार रहित है।
भावार्थ : आत्मा का इच्छुक इष्टसेवी कहलाता है। ऐसा आत्मा अपने व्रतों को अपने आत्मा के व्रत मानता है। व्रत ही उसकी आत्मा का स्वरूप है। यदि व्रतों में दोष लगता है तो उसे वैसे ही पीड़ा होती है जैसे कोई अपना वध करे तब होती है। व्रत ही जिसके प्राण हैं वह व्रती ही व्रत, शीलों का निरतिचार पालन करने वाला है।
आचार्य श्री वीरसेन जी महाराज षट्खंडागम सूत्रों की धवला टीका में कहते हैं कि एक मात्र शील- व्रतों में निरतिचारता से ही तीर्थंकर नाम कर्म बांधा जाता है। वह इस प्रकार है
हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्म और परिग्रह से विरत होने का नाम व्रत है । व्रतों की रक्षा को शील कहते हैं । सुरापान, मांसभक्षण, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद