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शेष भावना के नाम वहीं हैं जो किञ्चित् मात्र अन्तर के साथ हैं किन्तु उनका क्रम आगे-पीछे है।
लब्धि संवेग सम्पन्नता की तुलना अभीक्ष्ण संवेग से, साधुओं की प्रासुक परित्यागता की तुलना शक्तित: त्याग से, प्रवचन प्रभावना की समानता मार्ग प्रभावना से करने में कोई बाधा नहीं है। विशिष्ट अन्तर एक मात्र यह प्रतिभासित होता है कि षट्खण्डागम सूत्र में ' आचार्य भक्ति' नहीं है किन्तु एक नई भावना ' क्षण- लव प्रतिबोधनता' है ।
एक और विशिष्ट तथ्य यह है कि षट्खण्डागम सूत्रों में भावनाओं के नाम के अन्त में 'ता' प्रत्यय का प्रयोग किया है । यह ‘ता' प्रत्यय उस संज्ञा के भाव पक्ष पर जोर डालता है । तत्त्वार्थ सूत्र में मात्र 'विनय सम्पन्नता' के साथ 'ता' प्रत्यय का प्रयोग है और 'प्रवचन वत्सलत्व' में 'त्व' प्रत्यय का प्रयोग है। यह 'त्व' प्रत्यय भी 'ता' प्रत्यय की तरह भाव अर्थ में प्रयुक्त होता है । षट्खण्डागम सूत्र में अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग की जगह अभीक्ष्ण- अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग नाम भी अपनी विशिष्टता रखता है। इसी तरह मार्ग प्रभावना की जगह प्रवचन प्रभावना नाम दिया है। इसका अर्थ धवला टीका में इस तरह है
'आगमार्थ का नाम प्रवचन है। उसके वर्णजनन अर्थात् कीर्ति विस्तार या वृद्धि करने को प्रवचन की प्रभावना और उसके भाव को प्रवचन प्रभावनता कहते हैं ।'
इस दोनों परम्पराओं को देखते हुए सर्वत्र प्रचलित और मान्य परम्परा रूप से जो भावनाएँ तत्त्वार्थ सूत्र में वर्णित हैं, उन्हीं के अनुसार इस ग्रन्थ में प्राकृत भाषा में क्रम रखा है। मात्र 'शक्तित: त्याग' भावना का नाम 'पासुग परिच्चागदा' अर्थात् प्रासुक परित्याग भावना नाम दिया है, ताकि षट्खण्डागम सूत्र की परम्परा का समावेश भी हो जाय और भव्य जनों को यह परम्परा भी ज्ञात हो ।
जैसे बारह भावनाओं पर 'वारसाणुवेक्खा' ग्रन्थ है उसी तरह सोलहकारण भावना पर कोई भी ग्रन्थ अभी तक देखने में नहीं आया । इन सोलहकारण भावना की जैनदर्शन में बहुत महत्ता है इसी विचार से अपनी आत्मा को संस्कारित करने के लिए और भव्य जीवों के हित को भी ध्यान में रखते हुए 'प्राकृत भाषा' में गाथा रूप में यह ग्रन्थ लिखने का अतिपुण्य संयोग से यह कार्य हुआ है।
सम्यग्दृष्टि पुरुषों द्वारा त्रेपन क्रियाओं का पालन किया जाता है। ये क्रियाएँ आदिपुराण में विस्तृत रूप से कही हैं। इन्हीं क्रियाओं में छब्बीसवीं तीर्थकृद्भावना नाम की क्रिया है । इस क्रिया का संस्कार भी बुद्धिपूर्वक भावना करके अपनी आत्मा पर डाला जाता है ।
ततोऽधीताखिलाचारः शास्त्रादिश्रुतविस्तरः ।
विशुद्धाचरणोऽभ्यस्येत् तीर्थकृत्त्वस्य भावनाम् ॥ ३८ / १६४ सा तु षोडशधाऽऽम्नाता महाभ्युदयसाधिनी।
सम्यग्दर्शनशुद्ध्यादिलक्षणा प्राक्प्रपञ्चिता ॥ १६५