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और कौन निरतिचार होता है? यह कहते हैं
परमट्ठभावणादो अप्पाणं भावयदि अणण्णमणो। पुण्णफलं ण हि कंखदि सीलवदे अणइचारो सो॥४॥
हो अनन्यमन एकमना वो परमारथ रथ पर चढ़ता स्वयं सारथी योद्धा भी हो मन विकल्प रिपु से लड़ता। पुण्य फलों से मिले भोग की नाम, दाम की चाह बिना बना विजेता मोक्षमार्ग का व्रती वही निर्दोष बना॥४॥
अन्वयार्थ : [अणण्णमणो ] जो एकमना होकर [ परमट्ठभावणादो] परमार्थ की भावना से [ अप्पाणं] आत्मा की [ भावयदि ] भावना करता है [ पुण्णफलं] और पुण्यफल की [ कंखदि ] आकांक्षा [ण हि ] नहीं करता है [ सो ] वह [ सीलवदे ] शील, व्रतों में [अणइचारो] अनतिचार होता है।
भावार्थ : जो व्रती निश्चय आत्म स्वरूप की भावना से आत्मा की भावना करता है, आत्म स्वरूप का चिन्तन करता है, आत्मा में एकाग्रचित्त होता है। अपने मन को विक्षिप्त नहीं रखता है। आत्मा भावना से रहित काल में आवश्यक क्रियाओं को करते हुए पुण्य फल की आकांक्षा नहीं करता है, वह शीलव्रत में अतिचार रहित होता है।
हे आत्मन् ! परमार्थ की भावना रखो। बिना परमार्थ के व्रत, तप, शील आदि अंक रहित शून्य की तरह हैं। परमार्थ का अर्थ है- परम अर्थात् उत्कृष्ट और अर्थ अर्थात् प्रयोजनीय । उत्कृष्ट रूप से प्रयोजनीय । वह क्या होता है? तो अपना शुद्धात्म तत्त्व या मोक्ष। अर्थ का दूसरा अर्थ है पदार्थ । उत्कृष्ट पदार्थ भी परमार्थ है। शुद्ध आत्मा ही उत्कृष्ट पदार्थ है। यही परमार्थ है।
समय ही परमार्थ है, शुद्ध आत्मा ही परमार्थ है, जो केवलज्ञानी आत्मा है, वही परमार्थ है, प्रत्यक्षज्ञानी मुनि परमार्थ है, ज्ञानस्वरूपी आत्मा परमार्थ है।
इस परमार्थ की भावना से किया गया व्रत, तप, शील आदि सम्यक् है। जो परमार्थ की भावना से व्रत, तप आदि करेगा, वह भला पुण्य के फल की इच्छा क्यों करेगा? पुण्य का फल चाहना तो संसार को चाहना है । सम्यग्दृष्टि जीव को संसार की इच्छा नहीं होती है तो पुण्य के फल से मिलने वाले पद-वैभव की वांछा कैसे हो सकती है?
न, तप धारण करने वाला जीव बिना परमार्थ की भावना से परमार्थ के ध्यान के बिना ख्याति-पूजा-लाभ के व्यामोह में भी आकर भी व्रती बन जाता है और परमार्थ की भावना के साथ भी व्रती बनता है। किसके अन्दर व्रत आदि धारण का उद्देश्य क्या है, यह स्थूल(मोटे) रूप से तो कदाचित् स्वयं साधक को भी समझ में आता है
और कदाचित् स्वयं साधक को भी समझ में नहीं आता है। इसलिए समस्त व्रती, तपस्वी जनों को बाह्य तप, व्रत मात्र का आचरण करने वाले और परमार्थ की भावना से शून्य समझना स्वयं का मिथ्यात्व जन्य तीव्र अहंकार है।