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पूर्वकृत, पुनः सेवित, असि आदि आद्य कर्म, अकृत्रिम कार्य, सर्वलोक में सम्पूर्ण जीवों को, सर्व पर्यायों को, एक साथ जानते हुए, देखते हुए, विहार करते हुए, काश्यप गोत्रीय, श्रमण, भगवान्, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी महति- महावीर भगवान् ने पच्चीस भावनाओं सहित, पाँच समिति, तीन गुप्ति सहित, उत्तर गुणों से सहित, श्रमणों को पाँच महाव्रत और रात्रि भोजन त्याग रूप छठे अणुव्रत स्वरूप, समीचीन धर्म का उपदेश दिया है।
इसी प्रकार आगे लिखा है कि हे आयुष्मान् ! मैंने (गौतम गणधर ने) श्रावक, श्राविका, क्षुल्लक, क्षुल्लिका के लिए पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत इन बारह प्रकार के समीचीन गृहस्थ धर्म का जैसा स्वरूप सुना है, उसे मैं कहता हूँ
इस तरह हम देखते हैं कि भगवान् विहार करते हुए सर्वत्र श्रमण धर्म और गृहस्थ धर्म का उपदेश देते हैं। गौतम गणधर के ये वचन पंचमकाल के अन्त तक प्रामाणिकता के साथ-साथ जयवन्त रहेंगे।
त्रिकाल की समस्त पर्यायों को जानते-देखते हए भी भगवान् ने यह नहीं कहा कि- आयुष्मान् भव्य ! तुम काल लब्धि की प्रतीक्षा करो। हमारे ज्ञान में तुम्हारी आगामी सभी पर्यायें दिख रहीं हैं। तुम्हारा पुरुषार्थ स्वयं काल लब्धि आने पर वैसा ही हो जाएगा।
यह कथन न तो स्वयं भगवान् ने अपनी दिव्यध्वनि से कहा। ना ही यह कथन गौतम गणधर आदि ऋद्धिसम्पन्न शिष्यों ने कहा और ना ही उत्तरवर्ती आचार्यों, मुनियों ने कहा। फिर भी काललब्धि की मुख्यता से कथन करना, पुरुषार्थहीन होकर बैठना, देशव्रत, महाव्रत को बन्ध का और संसार का कारण कहना, ये सारहीन तथ्य आगम विरुद्ध हैं। अकर्मण्य पुरुषों ने छल से इस तरह का उपदेश देना प्रारम्भ किया है।
निकट भव्य जीव वही है जो भगवान के इस उपदेश को मानकर अणुव्रत या महाव्रतों का पालन करता है। यदि व्रत पालन की सामर्थ्य नहीं है तो भी आत्म निन्दा से युक्त रहता है किन्तु कदापि व्रती जीवों की निन्दा नहीं करता है। सम्यग्दृष्टि जीव का श्रद्धान भगवान् की वाणी पर इसी तरह होता है, अन्यथा नहीं।
अब सम्यग्दृष्टि जीव की भावना कहते हैं
सम्मादिट्ठी जीवो सव्वं रोचेदि भगवदोत्तं जं। गिण्हामि कदा सुवदं णिच्चमिदं भावमाणो वा ॥२॥
जो समकित समदर्शी प्राणी जिनवर कथित व्रतादिक को रुचि से गहता भाग्य समझता संयम, व्रत, तप पालन को। ग्रहण करूँ कब कठिन व्रतों को इस विधि भाव जगाता है शील-व्रतों की करे भावना भाव फलों को पाता है॥२॥
अन्वयार्थ : [ जं] जो [ भगवदा उत्तं ] भगवान ने कहा है [ सव्वं ] वह सभी [ सम्मादिट्ठी ] सम्यग्दृष्टि [ जीवो]