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इसलिए काललब्धि की प्रतीक्षा छोड़कर स्वशक्ति अनुसार सम्यक् तपाचरण करने में ही श्रद्धान कर। यही निर्जरा तत्त्व का यथार्थ श्रद्धान है ।
हे मुमुक्षो ! मोक्ष तत्त्व का विपरीत श्रद्धान यह है कि तूने कभी भी निराकुल आत्म परिणति का श्रद्धान नहीं किया है। जब भी तुझे सुख प्रतिभासित हुआ है, वह इन्द्रिय विषयों और मन की आकुलता से हुआ है । निराकुल आत्म सुख की भावना मोक्ष में है, यही मोक्ष तत्त्व का समीचीन श्रद्धान है।
सम्यक्त्व की शुद्धि करने के लिए वह भव्य दोषों को छोड़ता है और जो सराग सम्यक्त्व की पहिचान के लिए लक्षण हैं उन प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और अस्तिभ्य गुणों से भरपूर रहता है।
शान्त परिणाम रखना प्रशम भाव है । संसार, शरीर, भोगों से रति नहीं करना संवेग भाव है । करुणा, दया से मन का आप्लावित रहना अनुकम्पा है। जिनेन्द्र भगवान के कहे तत्त्वों में आस्था रखना आस्तिक्य है। ये चार गुण सम्यग्दृष्टि में अवश्य होते हैं और इन गुणों की वृद्धि से दर्शनविशुद्धि होती है। इस तरह प्रथम दर्शनविशुद्धि भावना सभी जीवों का नित्य उपकार करती हुई जयवन्त रहे ।