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तत्त्व सात हैं । जीव तत्त्व, अजीव तत्त्व, आस्रव तत्त्व, बन्ध तत्त्व, संवर तत्त्व, निर्जरा तत्त्व और मोक्ष तत्त्व। इन तत्त्वों का अर्थ यानि प्रयोजन जानने की भावना करने वाला तत्त्वार्थ की भावना करने वाला है। हमारी आत्मा में अनादि कालीन मिथ्यात्व कर्म के उदय से इन तत्त्वों का विपरीत श्रद्धान रहा है। तत्त्वों का प्रयोजन क्या है, इसकी भावना आत्मा ने नहीं की।
हे आत्मन् ! सभी तत्त्वों में मूल तत्त्व है- जीव तत्त्व। इस जीव तत्त्व के बिना अन्य तत्त्वों को अवकाश ही कहाँ है? अनादि से इस आत्मा ने जीव तत्त्व के बिना अन्य तत्त्वों का विपरीत श्रद्धान किया है। आत्मा पुदगल आदि द्रव्यों से भिन्न पदार्थ है। इस आत्म तत्त्व की सत्ता अनादि काल से है। देखने-जानने का स्वभाव ही आत्म का तत्त्व है। आत्मा ने स्वयं आत्मा को ज्ञाता-दृष्टा नहीं माना और ना ही जाना। आत्मा अत्यन्त सूक्ष्म, अदृश्य होने के कारण अपने शरीर को ही आत्मा मानता रहा। अपने शरीरगत सुख-दु:ख में हर्ष-विषाद करते रहा है। यही जीव तत्त्व का विपरीत श्रद्धान है। राजा-रंक, गरीब-अमीर, मोट-पतला, कुरूप-सुरूप आदि शरीर की और संयोग जन्य बाह्य परिणति को अपना आत्मा मानना ही इस जीव की अनादिकालीन भूल है।
जिसने जीव तत्त्व का यथार्थ श्रद्धान किया है वह भी जीव कथंचित् शरीर, पुत्र, स्त्री आदि को अपने कहता है किन्तु उसके ज्ञान में इन शरीर आदि से एकरूपता नहीं रहती है। जो ज्ञान प्रमाण-नयों से आत्मा को जाने वह सम्यग्ज्ञान (राइट नॉलिज) है। जो ज्ञान प्रमाण-नय के बिना आत्मा को जानता है, वह मिथ्याज्ञान (फाल्स / रांग नॉलिज) है। सम्यग्दृष्टि जीव के पास सम्यग्ज्ञान होता है और मिथ्यादृष्टि जीव के पास मिथ्याज्ञान होता है।
सम्यग्दृष्टि जीव इन शरीर आदि को कथंचित् जब अपना कहता है तो व्यवहार नय की अपेक्षा से कहता है निश्चय नय से तो ज्ञान-दर्शन स्वभाव वाला आत्मा ही मैं हूँ, ऐसा श्रद्धान करता है। इस प्रकार नय ज्ञान से जीवआत्मा को समझना चाहिए। पहले आप जिसे सर्वथा, एकमेक रूप से अपना समझते थे उसे व्यवहार नय से अपना समझो। इस तरह बुद्धि में जब व्यवहार और निश्चय इन दो नयों से हम पर-पदार्थों को जानेंगे तो एक भेद रेखा खिंच जाएगी। इसी का नाम भेद विज्ञान है, यथार्थ ज्ञान है।
तो आज से ही कहना प्रारम्भ करो कि- यह माता-पिता मेरे व्यवहार से हैं निश्चय से आत्मा का कोई मातापिता नहीं है। भाई-बहिन व्यवहार से मेरे हैं, निश्चय से मेरा आत्मा इन सम्बन्धों से अलग है। घर, परिवार, कार, व्यापार सब व्यवहार से मेरे हैं वस्तुतः निश्चय से तो मेरा ज्ञान-दर्शन स्वभाव वाला आत्मा ही मेरा है।
इस तरह बुद्धि में निरन्तर अभ्यास करने से मोह कर्म का उपशमन होकर यथार्थ श्रद्धान उत्पन्न होगा।
इसी तरह अजीव तत्त्व का यथार्थ श्रद्धान करो। अरे! यह शरीर आदि पर तत्त्व अजीव हैं, जड़ हैं और इनको तूने आत्मा माना इतना इन पर-पदार्थों में आत्मपन होने के कारण ही तू दुकान में या मकान में आग लग जाने पर पागल हो गया। तेरी पत्नी-पुत्र आदि आत्मीय जन मर जाने पर तू विक्षिप्त हो गया। तूने अपने शरीर को मृत्यु की शय्या पर पड़ा देखकर अपना मरण मान लिया और शरीर के रहने को अपना जीवन मान लिया।