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व्यवहार नय से आचार प्रधान ग्रन्थों में कहा जाता है कि दूसरों को पीड़ा मत दो। दूसरों को दुःखी मत करो। किसी का दिल मत दुखाओ। किसी का वध मत करो। यह कथन भी सत्य है। यदि इस व्यवहार को झूठा मानोगे तो चारों ओर हिंसा, झुठ आदि पापों का ही बोलबाला होगा, फिर धर्म-अधर्म में अन्तर क्या रहेगा?
जब हम किसी को सुखी होने के लिए सहायता करते हैं तो वह जीव सुखी होते हुए भी देखा जाता है। डॉक्टर, वैद्य के द्वारा रोगी जीव निरोगी होते हुए देखे जाते हैं। यह सच है कि जो जीव अपने आत्मा में साता के उदय से सहित होंगे उन्हीं को सुख मिलेगा। यह सच होते हुए भी आचार्यों ने यह भी कहा है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के निमित्त से कर्मों का उदय होता है। किसी जीव के असाता कर्म का उदय चल रहा है। किसी निमित्त से उसके द्रव्य, क्षेत्र आदि में परिवर्तन कर दिया तो कर्म का उदय साता में भी बदल जाता है। अन्यथा हाथ, पैर दबाने से, अनुकूल भोजन मिलने से रुग्णता दूर कैसे हो जाती है?
कर्म सिद्धान्त में नोकर्म(अर्थात् सहायक सामग्री) के माध्यम से कर्म की उदीरणा का सिद्धान्त कहा है। यह सिद्धान्त व्यवहार नय से सत्य है।
देखो! यशोधर राजा को उसी की पत्नी ने जहर खिला दिया वह मर गया। यहाँ व्यवहार नय से मरण का कारण विषाक्त भोजन और रानी बन गई । इसलिए यहाँ नोकर्म की मुख्यता है जो व्यवहार नय से सच है। भीम को दुर्योधन ने विष खिलाया, उसे कुछ नहीं हुआ। इस दृष्टान्त में निश्चय नय से दुर्योधन भीम की असाता की उदीरणा में निमित्त नहीं बन पाया। इसलिए निश्चय की दृष्टि से यह कथन भी सच है कि जब तक साता का उदय है कोई दु:खी नहीं कर सकता है।
इस विषय में यह भी एकान्त नहीं है कि भीतरी कर्म के उदय से ही वैसे ही नोकर्म मिलते हैं। यशोधर राजा के तीव्र असाता का उदय होना था, या उसका मरण होना था, इसलिए रानी ने उसको जहर खिला दिया। यदि ऐसा एकान्त से मानेंगे तो अकाल मरण नहीं हो सकेगा। यह सिद्धान्त विरुद्ध मान्यता होगी। कर्म की उदीरणा में नोकर्म सहायक है, इस कर्मकाण्ड की अवधारणा में असत्यता सिद्ध होगी।
हाँ, यह कथंचित् सत्य है कि कभी-कभी तीव्र असाता का उदय होता है तो उसी तरह के निमित्त मिलते जाते हैं। यह सर्वथा सत्य नहीं है। इसे कथंचित् सत्य मानना ही उचित है। कभी-कभी निमित्तों के द्वारा तीव्र असाता का उदय भी दूर हो जाता है। यह भी कथंचित् सत्य मानेंगे तभी हम स्याद्वादी और अनेकान्त दर्शन के मर्मज्ञ बन पाएँगे।
कर्मकाण्ड में स्पष्ट लिखा है कि निद्रा की उदीरणा का निमित्त भैंस का दही आदि बासा भोजन है। इससे स्पष्ट है कि यदि हम ऐसा गरिष्ठ भोजन लेंगे तो निद्रा आएगी। अब हम यदि कहें कि भोजन से कुछ नहीं होता है, निद्रा तो निद्रा कर्म के उदय से आती है, सो यह कथन असत्य सिद्ध होगा। ऐसी स्थिति में तत्त्वार्थ सूत्र में ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए गरिष्ठ भोजन नहीं करना आदि और अहिंसा की रक्षा के लिए दी गई भावनाएँ व्यर्थ सिद्ध होंगी।