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हि झाणं विण्णाणं तं पवयणं सया पणमामि ॥ ५ ॥
श्री जिन के प्रवचन में डूबा ज्ञान उसी का सम्यग्ज्ञान वही श्रमण एकाग्रमना है प्रवचन भक्ति-भाव में ध्यान । ज्ञान-ध्यान का मुख्य हेतु है श्री जिनवाणी का नित पान श्रमण बना पर शास्त्र बिना तो द्रव्य श्रमण वह है नादान ॥ ५॥
अन्वयार्थ : [ जस्स य ] जिसकी [ भत्तिविजुत्तो ] भक्ति के बिना [ समणो ] श्रमण [ एयग्गमणो ] एकाग्रमना [ कदा] कभी [ ण होदि ] नहीं होता है [ ण हि झाणं विण्णाणं ] न ही ध्यान और विज्ञान होता है [ तं पवयणं ] उस प्रवचन को [ सया ] सदा [ पणमामि ] प्रणाम करता हूँ ।
भावार्थ : प्रवचन का माहात्म्य अनिवर्णनीय है । हे प्रियात्मन् ! यह प्रवचन श्रमण और श्रावक दोनों के लिए बहुउपकारी है। इस प्रवचन, शास्त्र की भक्ति के बिना श्रमण का मन कभी एकाग्र नहीं होता है, श्रावक की तो बात ही क्या? भक्ति एक ऐसी चीज है कि अज्ञानी के मन में भी यदि जिनवाणी के प्रति भक्ति आ जाए तो उसका मन एकाग्र हो जाता है। भक्ति परिणामों को निर्मल बनाती है । भक्ति का फल बहुआयामी है । भक्ति से श्रद्धा उत्पन्न भी होती है और उत्पन्न हुई श्रद्धा दृढ़ भी होती है।
अरे सम्यग्दृष्टि जीव! सम्यग्दृष्टि जीव के मन में भक्ति की तरंगें हिलोरें लेती रहती हैं। यदि भक्ति के साथ ज्ञान भी हो तो वह भक्ति अत्यन्त विशुद्ध और दृढ़ परिणाम उत्पन्न करती है।
कितना अद्भुत है, कितना साहस है और श्रद्धान है उन मुनिराज का जो एक पूर्व कोटि की आयु के धारक हैं। उन्होंने यदि ८ वर्ष अन्तर्मुहूर्त में दीक्षा ग्रहण कर ली तो एकान्त में मौन रहकर इतना दीर्घकाल व्यतीत कर लेते हैं । जिनवाणी की भक्ति से वह विज्ञान की आराधना करते हैं। विज्ञान का अर्थ है विशिष्ट ज्ञान, जिसे भेदविज्ञान कहते हैं । अपनी आत्मा से पृथक् रूप परिणति में किञ्चित् भी एकत्व स्थापित न हो जाए, इस सावधानी से वह आत्म परिणति के निकट रहते हैं । इसी भेद विज्ञान की अभ्यस्त दशा में ध्यान लगता है। एकाग्र परिणति श्रमण के लिए उत्तम धन है। एकाग्र परिणति से ही श्रामण्य है । एकाग्र परिणति से ही विज्ञान है और एकाग्र परिणति की पूर्णता का नाम ही ध्यान है। आचार्य कुन्दकुन्द देव इसी एकाग्रता परिणति पर जोर देते हुए कहते हैं
एयग्गगदो समणो यत्तं णिच्छिदस्स अत्थेसु । णिच्छित्ती आगमदो आगम चेट्ठा तदो जेट्ठा ॥
अर्थात् श्रमण एकाग्रचित्त होता है । वह एकाग्रता पदार्थों का निश्चय करने से आती है। यह निश्चयात्मक परिणति आगम से आती है इसलिए आगम में चेष्टा करना ही उत्कृष्ट है।
हे कुन्दकुन्दभक्त! जरा सोचो कि आचार्य कुन्दकुन्द देव स्वयं प्रेरणा दे रहे हैं और प्रेरित कर रहे हैं कि