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भव्यात्मन् ! जीवकाण्ड में एकान्त रूप से अशुद्ध आत्मा का ही ज्ञान नहीं दिया जाता है किन्तु अशुद्ध दशा का कथन करके शुद्ध दशा का कथन भी किया जाता है। जब चौदह गुणस्थानों का वर्णन करते हैं तो अन्त में सिद्ध परमेष्ठी के स्वरूप का भी कथन करते हैं। मार्गणा में जीव को पहचानते हुए भी प्रत्येक मार्गणा में अन्त में मार्गणा रहित जीवों का कथन किया जाता है। गति मार्गणा में पंचम गति का वर्णन करते हुए सिद्धों का वर्णन करते हैं। इसी तरह काय आदि मार्गणा में जानना।
और सुनो! इन्हें सिद्धान्त ग्रन्थ भी इसलिए कहा जाता है कि सिद्धों का अन्त में कथन होने से सिद्धान्त कहलाता है।
ऐसी धारणा मत बनाओ कि सिद्धान्त ग्रन्थों के पढ़ने से एकान्ततः अशुद्ध आत्मा का ही ज्ञान होता है। वास्तविकता यह है कि अभी हमें अशुद्ध आत्माओं के बारे में भी पूर्ण ज्ञान नहीं है। केवल संसारी आत्मा, चार गति में भटकने वाला आत्मा या कर्म से बन्ध आत्मा अशुद्ध आत्मा है, इतना सामान्य से जानना अशुद्ध आत्मा का पूर्ण ज्ञान नहीं है। जब इन सिद्धान्त ग्रन्थों में एकेन्द्रिय आदि जीवों की संख्या, जीवों की संज्ञा, उनके प्रमाण, भव्य, अभव्य राशि, अनन्त प्रमाण निगोद आदि जीव, भिन्न-भिन्न मार्गणाओं में गुणस्थान आदि का वर्णन पढ़ते हैं तो इन जीवों की भावात्मक, कषायात्मक, जन्म-मरणात्मक सूक्ष्म परिणति का ज्ञान होता है। जब इस परिणति का सच्चा श्रद्धान बनता है तभी अपनी आत्म परिणति को सुधारने का भाव प्रबल बनता है। जब अनन्त संसार में अनन्त आत्माओं के बीच एक अपने आत्मा का अस्तित्व ज्ञात होता है तो कषायें आपोआप शान्त हो जाती हैं और सम्यक पुरुषार्थ करने का मन बनता है। इन विशेषताओं के ज्ञान से सिद्ध आत्मा में कुछ विशेषता दिखती है, अन्यथा मेरा आत्मा शुद्ध है, कर्म का उदय मेरा स्वभाव नहीं है, ऐसी समयसार की मात्र बातों से आत्मा में पुरुषार्थ जन्य कोई उपलब्धि नहीं होती है अपितु प्रमाद और कषाय ही बढ़ती है।
हे आत्मसिद्धि के इच्छुक! सिद्धान्त ग्रन्थों में आत्मा का विशेष रूप से वर्णन होता है और अध्यात्म ग्रन्थों में सामान्य रूप से आत्मा का कथन होता है। उस सामान्य प्ररूपणा में वस्तु के अखण्ड, अभेद रूप, कर्मातीत अवस्था का वर्णन किया जाता है। प्रारम्भ दशा में वस्तु में इस सामान्य रूप को जानने मात्र से मन स्थिर नहीं होता है। मन की स्थिरता विशेष स्वरूप समझने से ही होती है। सामान्य दशा में रहने की योग्यता अप्रमत्त दशा में मुनिराज को आती है। इससे पहले की दशा में विशेष रूप से मन को स्थिर करके भेदविज्ञान का अभ्यास किया जाता है। वह अभ्यास भी बिना संयम के बनता नहीं है। इसलिए गुणस्थान और मार्गणा के दर्पण में अपना आत्मा देखो और अपनी वास्तविक स्थिति का विचार करो। आचार्य कुन्दकुन्द देव ने समयसार की गाथा १४ में लिखा है
सुद्धो सुद्धादेसो णादव्वो परमभाव दरसीहिं। ववहारदेसिदा पुण जे दु अपरमेट्ठिदा भावे॥
अर्थात् परम भाव दर्शियों ने जाना है कि शुद्ध स्वरूप एक स्वभाव का अनुभव करने वाले जीव को शुद्ध का उपदेश अर्थात् शुद्ध नय का उपदेश कार्यकारी है और जो अशुद्ध अवस्था में , अपरमभाव में स्थित हैं उनके लिए व्यवहार नय प्रयोजनीय है।