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ज्ञान हो, फिर भी मौन रहूँ
__ ऐसा ज्ञानी बनूँ शक्ति हो, फिर भी क्षमा रखू
ऐसा ध्यानी बनूँ । पंख हों, उड़ा न करूँ
ऐसा परिन्दा बनूँ मन हो मचला न करूँ ऐसा मुनिन्दा बनूँ॥
बहुत कठिन होता है जब कोई अपनी योग्यता का ढिंढोरा न पीटे। जिस ज्ञानी आत्मा को इस लोक के साथसाथ परलोक भी दिखता है वह धैर्य धारण करके अपनी योग्यता को और बढ़ाता जाता है।
ऐसा भाव करना और संयमित रहना किन्हीं-किन्हीं को अपराध दिखता है। परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है। आप सोच सकते हैं कि शास्त्रों में कहा है- 'ज्ञानतपोजिनपूजाविद्यातिशयैश्च जिनधर्मः।' अर्थात् जिन धर्म की प्रभावना ज्ञान, तप, जिनपजा और विद्या के अतिशय से करनी चाहिए। और यहाँ आप ज्ञान रखकर मौन रहने की बात कर रहे हैं, क्या यह विरोधाभास नहीं है? नहीं है। हे भ्रात! फूल में गन्ध होती है तो फूल की ओर अपने आप सबकी नासा खिंच आती है। वह फूल स्वयं चौराहे पर बैठकर अपनी गन्ध से परिचय दूसरों को कराये तो यह मूर्खता ही है। ज्ञान का प्रदर्शन किए बिना भी ज्ञानी आत्मा दूसरों को देता है। वह पढ़ाता है परन्तु बदले में कुछ नहीं चाहता है। यहाँ पढ़ना-पढ़ाना ज्ञान का प्रदर्शन नहीं समझना किन्तु ख्याति, पूजा, लाभ की इच्छा से ज्ञान का प्रदर्शन बंध-कारक है। कोई ज्ञानी यदि अपने ज्ञान से अनेक ज्ञानियों को तैयार कर देता है तो वह महान् पुण्य का कार्य करता है। जिनवाणी की परम्परा को आगे बढ़ाना, जिन धर्म की प्रभावना करना तीर्थंकर सदृश पुण्य बंध का कारण है। जो ज्ञानीजन कर्म की विशुद्धि के लिए श्रुत का अध्ययन करता और कराता है उनकी मैं वंदना करता हूँ। वह आचार्य परमेष्ठी हों, उपाध्याय परमेष्ठी हों, या साधु परमेष्ठी, मैं सभी श्रुतज्ञानधारी आत्माओं की वंदना करता
तत्त्वज्ञानी की वंदना करते हुए कहते हैं
सुदणाणजलेण सया सयंवि ण्हाणं करेदि कारयदि। देहप्पविब्भमलयं कहेदि तच्चं णमंसामि॥ २॥
शास्त्र ज्ञान के भाव ज्ञान से शीतल जल से नहा रहे स्वयं धो रहे विधि-अघ रज को पाप कलुषता बहा रहे। देह आत्म का विभ्रमनाशी तत्त्व दिखाकर भविकों को स्वयं स्वस्थ हैं स्वस्थ बनाते नD-नमूं श्रुत श्रमिकों को॥२॥