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संमोह [ण कुणदि] नहीं करते हैं [ समिदिं] और समिति को [णेव विणासइ ] विनष्ट नहीं करते हैं [ सो आयरिओ] वह आचार्य [ सया जयउ] सदा जयवन्त हों।
भावार्थ : लोक में कलिकाल के कारण एकान्तमतियों का बहुत उत्कर्ष देखा जाता है। उन्हें अपने प्रभाव में लेकर लोक ख्याति की इच्छा करना ठीक नहीं है। ऐसा करने में उनका आदर, उनकी प्रशंसा करनी पड़ती है जिससे सम्यग्दर्शन में दोष तो लगता है साथ ही उनका एकान्त अभिप्राय और दृढ़ होता है। जो आचार्य ख्याति, लाभ के लोभ में आकर उनसे मोह करके उन्हें अपना बनाकर अपनी मान-बढ़ाई बढ़ाते हैं तथा जो समिति पालन में तत्पर नहीं रहते हैं वह धर्म की हानि करते हैं। जो धर्म की हानि नहीं करते हैं, वह आचार्य जयवन्त होवें।
शिष्यों की रक्षा करने वाले वह आचार्य जयवन्त हों
जो णट्ठमग्गजीवे संबोहिय देदि सम्मचारित्तं। रक्खदि पुणो वि सिस्से सो आयरिओ सया जयउ॥७॥
मार्ग भ्रष्ट जो जीव हैं उनको सम्बोधन देकर सम्यक् चारित ग्रहण कराते शिव सुख का लालच देकर। फिर उस शिष्य की रक्षा करते विषय मोह से पापों से सो जयवन्त रहें आचारज पितु सम पालें प्राणों से॥७॥
अन्वयार्थ : [ णट्ठमग्गजीवे ] मार्ग भ्रष्ट जीवों को [ जो ] जो आचार्य [ संबोहिय ] संबोधन देकर [ सम्मचारित्तं] सम्यक् चारित्र [ देदि] देते हैं [ पुणो वि] फिर [ सिस्से ] शिष्यों की [ रक्खदि] रक्षा करते हैं [ सो] वह [ आयरिओ ] आचार्य [ सया जयउ] सदा जयवन्त हों।
भावार्थ : जो जीव मार्ग से भटके हुए हैं। उन्हें किस मार्ग पर चलने से उत्तम सुख की प्राप्ति होगी? यह जिन्हें ज्ञात नहीं है, उन्हें ज्ञान देकर मार्ग पर लगाते हैं और सम्यक् चारित्र प्रदान करते हैं। चारित्र की शिक्षा और संस्कार देने के बाद उनकी रक्षा करते हैं। पालन-पोषण में तत्पर वह आचार्य देव सदा जयवन्त हों।
उपसंहार करते हुए कहते हैं
विणीद-भावेण धरेदि भारं वदस्स सिस्सस्स महाबली जो। सो दिव्ववेजो भवदुक्खणासी आरोग्गबोहिं खलु देउ सत्तिं ॥ ८॥