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११. आइरिय भत्ती
जगुदुद्धारगचेदा णिय-अप्पणो भावगो पयत्तेण। आइरिओ बहुपुण्णो भववइदरिणीतरणतरणी॥१॥
निज आतम उद्धार हेतु जो साधु बने हैं भावों से साथ-साथ जग का कल्याणक बने सूरि सद्भावों से। स्वयं पुण्य से बने, पुण्य से लाभ मिले आचारज का भव वैतरणी पार करन को नाव मिली फिर अचरज क्या॥१॥
अन्वयार्थ : [ जगदुद्धारगचेदा ] जगत् के उद्धारक आत्मा [ पयत्तेण ] प्रयत्न से [णियअप्पणो ] अपनी आत्मा की [ भावगो] भावना करने वाले [आइरिओ] आचार्य[बहुपुण्णो] बहुत पुण्य वाले हैं जो [ भव-वइदरिणीतरण-तरणी] भव-वैतरिणी से तरने के लिए लघनौका हैं।
भावार्थ : आचार्य परमेष्ठी जगत् के उद्धारक आत्मा हैं। आचार्य देव प्रयत्न पूर्वक अपनी आत्मा की भावना करते हैं। व्यवहार और निश्चय पंचाचार आत्मा के अनन्य गुण हैं। ज्ञानाचार, दर्शनाचार, वीर्याचार, तपाचार और चारित्राचार इन पंच आचारों/आचरण का स्वयं पालन करते हैं और अन्य भव्य आत्माओं को कराते हैं। संसार रूपी वैतरणी नदी को तरने के लिए दीक्षा-शिक्षा और प्रायश्चित्त देकर भव से पार लगाते हैं, इसलिए आचार्य परमेष्ठी ही संसार से तराने वाली नाव हैं। आचार्य परमेष्ठी बहुत पुण्यवान् आत्मा होते हैं।
आचार्य देव धर्म पताका को फहराते हैं
बहुजम्मपुण्णदो खलु दिस्सदि मुत्ती गुणभरियदेवस्स। धम्मस्स वा पदागा विपरिप्फुरदि जस्स लोगम्मि॥२॥
जन्म-जन्म के पुण्य भविक जन जब संचित कर लेते हैं गुण-गण भरे देह सूरी की दिव्य मूर्ति तब लखते हैं। सर्व लोक में जिनकी महिमा जैन धर्म को बता रही उन आचार्य देव की जग में धर्म ध्वजा पथ बता रही॥२॥
अन्वयार्थ : [ जस्स ] जिनके [ धम्मस्स ] धर्म की [ पदागा वा ] पताका [ लोगम्मि ] लोक में [ विपरिप्फुरदि] स्फुरित होती है। [ गुणभरियदेवस्स ] गुण से भरे उन आचार्य देव की [ मुत्ती ] मूर्ति [ बहुजम्मपुण्णदो ] बहुत जन्मों के पुण्य से [ खलु ] वास्तव में [ दिस्सदि] दिखती है।
भावार्थ : लोक में जिनके धर्म की ध्वजा बिना बाधा के फहरा रही है। अनेक गुणों से भरे उन आचार्य देव का दर्शन