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धम्मकहा 8895
(११) आचार्य भक्ति भावना कलिकाल में मोक्षमार्ग का प्रथम आलम्बन भूत आचार्य परमेष्ठी हैं। श्रेष्ठ आचार्य पन्थवाद से विमुक्त निःसंग और परहित में रत होते हैं। चूंकि पंचाचार में परायण वह होते हैं इसलिए दर्शनाचार से वह अच्छी तरह सम्यक्त्व का पालन करते है । ज्ञानाचार से वह अच्छी तरह सम्यग्ज्ञान धारण करते है। चरित्राचार से वह अहिंसा मूल की रक्षा करके तेरह प्रकार के चारित्र का आचरण करते हैं। वीर्याचार से बल, वीर्य और पराक्रम के द्वारा सभी अनुष्ठानों की अभिलाषा रखते हैं। तपाचार के द्वारा वह बारह प्रकार के तप को धारण करते हैं। अन्य को भी इसी प्रकार से करने के लिए प्रेरणा देते हैं और शिक्षा देते हैं। अनेक गुणों से गंभीर शिक्षा-दीक्षा में वरिष्ठ, नौ प्रकार की ब्रह्मचर्य की गप्तियों से सहित, जिन शासन के कीर्ति स्वरूपचन्द्रमा, आर्यिकाओं के साथ समाचार को जानने वाले,कण्ठगत प्राण हो जाने पर भी जिनशासन को मलिन न करने वाले, देश-काल की परिस्थितियों को जानने में कुशल अन्य संघ के आचार्यों की निन्दा नहीं करने वाले, जिनोक्त विधान से ही संघ के संचालन में तत्पर, ध्यान, अध्ययन, प्रायश्चित्त, समाज, देश, धर्म आदि सभी विषयों में हित रूप चिन्तन करने वाले अनेक प्रकार के प्रकार के प्रत्युत्तर प्रदान करने में निपुण, सर्व मनोज्ञ, निर्मल कीर्ति को धारण करने वाले, बहुमुखी प्रतिभा के धनी आचार्य होते हैं।
उनमें भाव विशुद्धि से युक्त अनुराग होना भक्ति है। आचार्य भी आचार्यों की भक्ति करते हैं क्योंकि उनमें गुण ग्रहण का भाव रहता है। आचार्य कुन्दकुन्द देव भी आचार्यों की भक्ति में कहते हैं
"गुरु भक्ति के संयम से घोर संसार सागर तैर जाते हैं। आठ कर्मों का नाश हो जाता है और भव्य जीव जन्म मरण को भी प्राप्त नहीं करते हैं।"
वह आचार्य न केवल आचार्यों की भक्ति करते हैं किन्तु विशेष ध्यान, विशेष योग करने में निपुण साधु की भी भाव विशुद्धि के साथ वन्दना करते हैं। नित्य ही महर्षियों की, योगियों की, ऋद्धि प्राप्त मुनियों के मुनियों के चरण कमलों को अपने हृदय में धारण करते हैं। जो संसार में मार्ग से भ्रष्ट हैं ऐसे जीवों के लिए संसार समुद्र से तरने के लिए महान नाव आचार्य परमेष्ठी हैं। इस प्रकार के गुरु की सेवा भक्ति आदि प्रत्यक्ष में भी और परोक्ष में भी उनके गुण, कीर्तन आदि के द्वारा निरन्तर भव्य जीवों को करते रहना चाहिए। चन्द्रगुप्त मौर्य के द्वारा भद्रबाहु श्रुत केवली के समीप में दीक्षा ग्रहण की गयी। अन्त समय में सल्लेखना काल में चन्द्रगुप्त मौर्य ने गुरु की सेवा की। बाद में स्वयं भी निर्विघ्न रूप में सल्लेखना मरण किया। उनका स्मरण आज चन्द्रगिरि पर्वत पर शिलालेख में उत्कीर्ण चित्रों में श्रवणबेलगोल (कर्नाटक में) प्रसिद्ध है।
जब आचार्य सल्लेखना के सम्मुख होते हैं तब योग्य शिष्य को आचार्य पद प्रदान करके वह निवेदन करते हैं कि-"आज के बाद मूलाचार, प्रायश्चित्त शास्त्र के अनुसार अनुचरण करके शिष्यों की शिक्षा-दीक्षा विधि के द्वारा आपको शिष्यों का अनुग्रह करना है।" आचार्यों के ३६ मूलगुण होते हैं । उनका वर्णन दो प्रकार से कहा गया है । (१) बारह तप, दस प्रकार का धर्म, पंचाचार, छह आवश्यक और तीन गुप्तियाँ ऐसे ये ३६ मूलगुण होते हैं । (२) आचारत्व आदि ८ गुण, १२ प्रकार के तप, १० प्रकार के स्थितिकल्प, छह आवश्यक इस तरह छत्तीस गुण होते हैं। सत्य ही है-"जो विनीत भाव से व्रतों के भार को और शिष्यों के भार को धारण करते हैं वह महाबली हैं और वह दिव्य वैद्य हैं वही संसार दुःख का विनाश करने वाले हैं। ऐसे वह आचार्य परमेष्ठी मुझे आरोग्य और बोधि की प्राप्ति करावे और मुझे शक्ति प्रदान करें।" (तित्थयर भावणा ८९)