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शिक्षाप्रद कहानिया
हमारे देश में अनेक ऐसे सन्त - महात्मा हुए हैं जिन्होंने अपने निर्मल ज्ञान और सदाचरण के बल पर अपनी सोच को बदलते हुए, घर गृहस्थी में रहते हुए भी दु:खों पर विजय प्राप्त की है। ऐसा नहीं है कि उनके जीवन में सभी कुछ अच्छा-अच्छा ही घटित हुआ हो। लेकिन, फिर भी चौबीसों घण्टे अपनी मस्ती में मस्त रहते थे। तीर्थंकर ऋषभदेव के पुत्र 'भरत' घर-गृहस्थी के अनेक झंझटों में रहते हुए भी मस्त रहते थे। कबीरदास जी आज कपड़ा बुनते थे तो अगले दिन उनके खाने का जुगाड़ हो पाता था। लेकिन फिर भी वे हमेशा यही कहते रहते थे कि 'मेरे अन्दर तो आनन्द के फव्वारे छूटते रहते हैं। गुरु नानक देव जी इकतारे की तान पर गीत गाते हुए हमेशा आनन्द से सरोबार रहते थे। ऐसे अनेक दृष्टान्त हैं। अतः हम सबको यह भलीभाँति सोच और समझ लेना चाहिए कि जिस प्रकार हमें बहुत-सी आदतें पड़ जाती है, जिनके बगैर हम से रहा नहीं जाता उसी प्रकार सुख और दुःख भी सिर्फ आदतें हैं। दुःखी रहने की आदत तो हमने डाल रखी है लेकिन, सुखी रहने की आदत हम डालना नहीं चाहते हैं। और जिस दिन हमने सुखी रहने की आदत को अपने अन्दर विकसित कर लिया उस दिन ये सब दुःख कोसों दूर भाग जाएंगे।
३८. वास्तविक दान किसी शहर में दो मित्र रहते थे- धनपाल और दयामल। नाम के अनुरूप ही उनके काम थे। धनपाल वास्तव में धनी तो दयामल दयालु था। संयोगवश दोनों एक ही दिन पैदा हुए, एक साथ खेले-कूदे और बड़े हुए। और सुखपूर्वक जीवन-यापन करते हुए एक ही दिन परलोक सिधार गए। दोनों मित्रों ने मन ही मन सोचा था कि हम परलोक भी इकट्ठे ही जाएंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
उनकी आत्माओं को ले जाने के लिए परलोक से दो दूत उतरकर पृथ्वी पर आए थे। उनमें से एक देवदूत था- सुन्दर गोरा-चीटा। दूसरा यमदूत था- काला और डरावना। उन्हें देखकर धनपाल मन ही मन