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शिक्षाप्रद कहानिया अधूरापन महसुस होता रहता है।
। अभी आप किसी से भी पूछिए कि आप कौन हैं? वह तुरन्त जबाब देगा मैं रामलाल हूँ, श्यामलाल हूँ, घनश्याम हूँ, राम हूँ, कृष्ण हूँ इत्यादि। पहली बात तो यह है कि क्या तुम वही राम हो जो दशरथ के पुत्र थे। तो जबाब होगा नहीं मैं वो तो नहीं हूँ। अरे! भले आदमी ये नाम तो लोकव्यवहार चलाने के लिए हमारे माँ-बाप ने रख दिए, क्योंकि इनके बिना भी काम नहीं चलेगा। इसलिए ये भी आवश्यक हैं लेकिन हम सबसे बड़ी भूल हो जाती है कि हम यहीं तक सीमित होकर रह जाते हैं।
इससे आगे कुछ जानने का कोई प्रयत्न ही नहीं करते, और अपने मूल से ही भटक जाते हैं, जोकि बहुत ही भयानक है। आप सोच सकते हैं कि जिस मकान की नींव ही कमजोर हो जाए तो उसका क्या हश्र होता है? इस प्रसंग में एक दृष्टान्त याद आ रहा है, जो इस प्रकार से है।
किसी शहर में एक बहुत धनी स्त्री रहती थी। उसने एक कार खरीदी और उसको चलाने के लिए ड्राइवर रखा। एक दिन वह घूमने निकली। थोड़ी दूर चलने के बाद उसने देखा कि- उसकी पड़ोसन पैदल जा रही है, उसके मन में तुरन्त विचार आया कि क्यों न इसे अपनी गाड़ी में बिठा लिया जाए। अपनी गाड़ी और शान-शोकत दिखाने का इससे अच्छा अवसर और कहाँ मिलेगा? उसने तुरुन्त ड्राइवर को आदेश देकर गाड़ी खड़ी की और उसे बुलाकर गाड़ी में बिठा लिया। यात्रा पुनः प्रारम्भ हो गई। अभी वे कुछ ही दूर चले थे कि उस स्त्री ने देखा सामने से उसकी कोई दूर की बहन आ रही है। उसने फिर वैसा ही किया और उसे भी गाड़ी में अपने साथ बिठा लिया। यात्रा फिर शुरू हुई, लेकिन फिर थोड़ी दूर चलने पर उसे अपने स्कूल के दिनों की एक सहेली दिखाई दे गई और उसने फिर वही किया और उसे भी अपने पास बिठा लिया। पिछली सीट अब भर चुकी थी। यात्रा फिर शुरू हो गयी, लेकिन थोड़ी ही दूरी पर उसे फिर कोई जानने वाली महिला मिल गई और