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शिक्षाप्रद कहानियां
६. परोपकार ही जीवन है आत्मार्थं जीवलोकेऽस्मिन् को न जीवति मानवः। परं परोपकारार्थं यो जीवति स जीवति॥
सृष्टि के प्रारम्भ में जब मनुष्य इस पृथ्वी पर आया, तो सर्वप्रथम उसकी जिज्ञासा हुई कि मैं इस दुनियाँ को देखू। यह सोचकर वह इस दुनिया को देखने निकल पड़ा।
घूमते-घूमते सर्वप्रथम उसे जल के दर्शन हुए। वह अपने लहर रूपी पैरों को आगे बढ़ाकर शायद कह रहा था कि- हे पत्थरों, पहाड़ों, पेड़, पौधों! तुम सब मेरे मार्ग से हट जाओ। मुझे देर हो रही है, न जाने कितने ही पशु-पक्षी, पेड़-पौधे और मनुष्य मेरी राह देख रहे होंगे, वे प्यास से व्याकुल हो रहे होंगे। मेरी जरा-सी देरी के कारण उनकी आशारूपी किरण बुझ जाएगी, उनके प्राणों पर महासंकट आ जाएगा। अतः तुम सब मेरे मार्ग से हट जाओ और मुझे अपने कर्तव्य का पालन करने दो।
तत्पश्चात् मनुष्य आगे बढ़ा। चलते-चलते उसे मिट्टी मिली। वह उसे ध्यान से देखने लगा। मिट्टी पानी से निवेदन कर रही थी किहे! जल देवता आप मुझे शीघ्र ही गाँवों की ओर ले चलो न जाने कितने ही पशु-पक्षी, मनुष्यादि भूख से प्रताड़ित होकर मेरी राह देख रहे होंगे, क्योंकि मुझे उनके लिए खेतों में अन्न उगाना है, फल उगाने हैं, सर्दी-गर्मी से परेशान न जाने कितने स्त्री-पुरुष परेशान हो रहे होंगे। मुझे उन सबके लिए कपास उगानी है। न जाने कितने ही मनुष्य मकान न होने के कारण सर्दी, गर्मी और बरसात आदि से परेशान ही रहे होंगे। मुझे उनके लिए ईटें और घर बनाने हैं। और भी बहुत सारे काम मुझे करने हैं, अतः आप मुझे शीघ्र ले चलो।
इसके बाद मनुष्य और आगे बढ़ा तो उसे किरण के दर्शन हुए। वह बादलों और पहाड़ों से कह रही थी कि- तुम सब मेरे मार्ग से हट