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शिक्षाप्रद कहानिया
185 होता है। इसीलिए कहा जाता है कि
'आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।' ___अर्थात जो आचरण हमें खुद के लिए बुरा लगता है वह दूसरों के साथ नहीं करना चाहिए।
तत्पश्चात् सचमुच की थलियाँ लगी उन सब ने उदर वेदना को शांत किया और उन्होंने प्रतिज्ञा भी की अब वे जीवन में कभी भी इस प्रकार का आचरण नहीं करेंगे।
तभी उन्होंने देखा कि एक चौथा व्यक्ति भी वहीं भोजन कर रहा था- यह वही आदमी था जो कल रोटी माँग रहा था।
उसे देखकर कवि बोला- अब तक मैं सपनों की कविता लिखता था। आज से मैं प्राणी मात्र की हितैषी कहानियाँ लिखूगाँ।
__ वैद्य जी बोले- आज से मैं गरीबों का निःशुक्ल उपचार करूँगा।
चित्रकार बोला- आज से मैं अपनी कमाई का दसवाँ भाग गरीबों को दान दिया करूँगा।
८८. गुरुनिष्ठा हमारे देश में प्राचीन काल से यह कहा जाता है कि जब से इस सृष्टि की रचना हुई है तभी से मनुष्य के जीवन में गुरु का बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। उन्हें भवगान् से भी ऊँचा स्थान दिया जाता है।
और दिया भी क्यों न जाएं? क्योंकि माता-पिता के पश्चात् अगर किसी व्यक्ति के जीवन में सर्वोच्च स्थान है तो वह गुरु का ही है। और मैं तो ऐसा मानता हूँ कि जो यथार्थ ज्ञान है वह व्यक्ति को गुरु से ही प्राप्त होता हैं क्योंकि, माता-पिता तो मोहवश या स्वार्थवश उस परममार्ग पर अग्रसर होने के लिए शायद प्रेरित न भी करें। लेकिन जो वास्तविक गुरु होते हैं, उनको न तो कोई मोह होता है और ने ही कोई स्वार्थ। वे तो निस्वार्थभाव से हर क्षण यही चिंतन करते रहते हैं कि येन-केन प्रकारेण शिष्य का हित हो। शायद इस लिए संत कबीर को कहना पड़ा