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शिक्षाप्रद कहानिया
159 मैं एक ज्ञान-दर्शनमय आत्मा हूँ, स्वयं हूँ, इसलिए अनादि से हूँ, न मेरा कभी जन्म हुआ है और न कभी मेरा मरण होगा। इस मनुष्य जन्म से पहले भी मैं था। क्या था? अनन्तकाल तक तो निगोदिया जीव रहा, एक सेकेण्ड में सोलह बार पैदा हुआ और मरा। जीभ, नाक, कान, आँख और मन तो था नहीं, था तो केवल शरीर। ज्ञान की ओर से देखो तो जड़। बहुत बुरी दशा। कर्मोदय का सुयोग मिला तो उस दुर्दशा से निकला। पृथ्वीकायिक हुआ तो फावड़ों से खोदा गया, कूटा गया, तोड़ा गया, सुरंग से फोड़ा गया। जलकायिक हुआ तो औटाया गया, विलोरा गया, गर्म आग पर डाला गया। अग्निकायिक हुआ तो पानी से राख से, धुल से बुझाया गया, लोहे के सलाखों से खुदेरा गया। वायुकायिक हुआ तो पंखों से, बिजलियों से तोड़ा गया, रबर आदि में रोका गया। वनस्पतिकायिक हुआ तो काटा, छेदा, भूना और सुखाया गया।
कीड़ा भी मैं ही बना। मच्छर, मक्खी, बिच्छु आदि भी मैं ही बना। बताओ उस समय कौन मेरी रक्षा कर सका? रक्षा तो बहुत दूर की बात, दवाईयां डाल-डाल कर मारा गया, पत्थरों से जूतों से, खुरों से दबोचा एवं मारा गया। बैल, घोड़ा, कुत्ता आदि मैं ही बना। कैसे-कैसे दुःख भोगे? भुखा-प्यासा रहा, सर्दी-गर्मी को सहन किया, चाबुक की मार खाई। नाना प्रकार के दुःखों को सहन किया।
उक्त सारी कथा किसी और की नहीं अपितु मेरी स्वयं की है यह दशा क्यों हुई? क्योंकि मैने मोह को बढ़ाया, खूब कषाय की, खाने, पीने और विषय सेवन में अत्यन्त तीव्र लालसा रखी, तृष्णाओं को खूब बढ़ाया, नाना कर्म बाँधे, मिथ्यात्व, अन्याय और अभक्ष्य सेवन किए। बड़ी कठिनाई और कर्मोदय के संयोग से यह मनुष्य जन्म मिला लेकिन यहाँ भी मोह-राग-द्वेष और कषायों में ही लिप्त रहा। अतः मनुष्य होना न होना बराबर रहा। कभी ऐसा, भी सुयोग हुआ कि मैंने देव होकर या राजा, सम्राट और धनपति होकर अनेक प्रकार की सम्पतियों को प्राप्त किया लेकिन वहाँ भी क्लेश का अनुभव किया क्योंकि वे सभी संपतियाँ भी तो थी नश्वर ही थी, एक न एक दिन तो उन्हें छोड़ना ही पड़ा। अतः आत्मन्! तू ऐसा चिंतन कर कि मै स्वयं से ज्ञान-दर्शनमय हूँ, प्रभु हूँ,