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शिक्षाप्रद कहानिया आवश्यक प्रतीत हो रहा है कि सोचने और चिन्ता करने में जमीन-आसमान का फर्क होता है। कहा भी जाता है कि
चिन्ता चिता समा ह्युक्ता बिन्दुमात्रविशेषतः। निर्जीवे दहति चिता सजीवे दहति चिन्ता॥
५३. उपदेशदाता का आचरण कैसा हो?
बहुत समय पहले की बात है। एक स्त्री अपने पुत्र को लेकर एक महात्मा के पास आई और कहने लगी, 'महाराज यह गुड़ बहुत खाता है। मैं घर में महीने भर का गुड़ लाकर रखती हूँ, जिसे यह दो-तीन दिन में ही खा जाता है। जिसके कारण इसके शरीर में फोड़े-फुसी भी हमेशा निकले रहते हैं। और यह है कि डॉक्टर के मना करने पर भी गुड़ छोड़ना तो दूर कम भी नहीं करता है। अतः आप मुझे कोई ऐसा उपाय बताइए जिससे यह गुड़ खाना बन्द कर दे।'
यह सुनकर महात्मा बोले- 'ठीक है बहन! इसे कल ले आना?' अगले दिन जब वह स्त्री पुत्र को लेकर उनके पास आई तो उन्होंने लड़के से पूछा, 'क्यों भाई! तू गुड़ ज्यादा खाता है?' उसने कहा- 'हाँ खाता हूँ।' उन्होंने कहा, तू गुड़ खाना बन्द कर दे। वरना तुझे और भी भयंकर बीमारी हो सकती है, जिससे तेरे प्राणों तक पर संकट आ सकता है। और यह तो स्पष्ट कहा जाता है। कि- 'अति सर्वत्र वर्जयेत्।' अर्थात् कोई भी काम हो अगर उसमें अति की जाती है तो वह खतरनाक होती है। चाहे वह खाने की ही क्यों न हो? लड़के की होनहार अच्छी थी। वह महात्मा की बात समझ गया। और उसने वहीं दृढ़ संकल्प कर लिया कि भविष्य में भी कभी वह न केवल खाने में बल्कि, किसी भी काम में अति नहीं करेगा।
यह सब देख-सुनकर लड़के की माँ कुछ चिन्तित होते हुए बोली- 'महाराज! बस इतनी-सी बात थी तो यह तो आप कल भी बता सकते थे?