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शिक्षाप्रद कहानिया स्वाच्छन्द्यफलं बाल्यं तारुण्यं रुचिरसुरतभोगफलम्। स्थविरत्वमुपशमफलं परहितसम्पादनं च जन्मफलम्॥
अर्थात् बचपन का फल स्वच्छन्दता है, जवानी का फल आनन्ददायक सम्भोग है, वृद्धावस्था का फल शान्ति है और जन्म लेने का फल दूसरे का हित करना है।
३. गुणग्राही बनना चाहिए गुणदोषसमाहारे गुणान् गृह्णन्ति साधवः।
क्षीरवारिसमाहारे हंसः क्षीरमिवाखिलम्॥
सृष्टि के प्रारम्भ में जब मनुष्य का जन्म हुआ तो इसकी प्रबल इच्छा हुई कि क्यों न मैं इस सृष्टि को देखू। बस फिर क्या था? निकल पड़ा मनुष्य इस सृष्टि को देखने के लिए जैसे ही उसने अपनी यात्रा शुरु की तो सर्वप्रथम इसने देखा कि- एक वृक्ष की डाल पर बैठकर कोयल अपने मधुर कण्ठ से कुछ गा रही थी। कोयल का मधुर गान सुनकर यह बहुत ही आनन्दित हो उठा और बड़े ही मनोयोग से उसको सुनने लगा
और खूब प्रसन्न हुआ, लेकिन अन्त में बोला- हे कोयल! काश तू काली न होती तो कितना अच्छा होता।
इसके बाद आगे बढ़ते हुए उसने बाग में गुलाब के फूल को देखा। और बहुत ही हर्षित होते हुए उसके निकट जाकर उसकी भीनी-भीनी खुशबू का आनन्द लेने लगा लेकिन अंत में बोला- हे गुलाब! काश तेरे साथ ये काँटे न होते तो कितना अच्छा होता।।
इसके बाद वह और आगे बढ़ा तो उसने समुद्र की ओर देखा और उसमें उठती हुई लहरों, तैरती हुई मछलियों आदि को देखकर प्रफुल्लित होने लगा, लेकिन अंत में चलते हुए बोला- हे समुद्र! काश तू खारा न होता।