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शिक्षाप्रद कहानिया
पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि, जलमन्नं सुभाषितम्। मूढः पाषाणखण्डेषु, रत्नसंज्ञा विधीयते॥
अतः यह जग जाहिर (संसार प्रसिद्ध) सत्य है कि उक्त विधाओं का महत्त्व किसी से छिप। हुआ नहीं है। उपरोक्त श्लोक में मित्र के लक्षण बतलाए गए हैं। अब जरा हम वर्तमान परिस्थिति को देखें तो बितकुल विपरीत परिस्थिति दिखाई देती है। अच्छे-अच्छे, बड़े-बड़े घर बर्बाद हो जाते हैं, पापकार्यों में प्रवृत्त कराने वाले मित्र तो पग-पग पर मिल जाते हैं, लेकिन इन पापकार्यों से बचाने वाला शायद ही कोई विरला मिलता हो। अतः उक्त श्लोक से शिक्षा प्राप्त करके हम सबको अपने कर्तव्य को समझना चाहिए। इस सन्दर्भ में मैंने एक कहानी पढ़ी थी। मैं यहाँ उसको लिखने का प्रयत्न करूंगा।
प्राचीन समय की बात है। मध्यप्रदेश की चम्बल घाटी के बीहड़ में एक वटवृक्ष पर कबूतर और कबूतरी का जोड़ा रहता था। संयोगवश एक दिन ऐसा आंधी-तूफान आया कि जंगल के बड़े-बड़े पेड़ तक हिल गए और उनके घोंसले का एक-एक तिनका हवा में उड़ गया। वे निरीह पक्षी बेघर हो गए। लेकिन, अच्छी बात यह हुई के उनको किसी प्रकार की शारीरिक हानि नहीं हुई। और जैसे ही मौसम साफ हुआ, वे दोनों पुनः अपना घोसला बनाने के बारे में विचार-मन्थन करने लगे।
कबूतर बोला- यहाँ से कुछ ही दूर मैंने एक खण्डहर देखा है, अब हम अपना घोंसला वहीं बनाएंगे। क्योंकि उसके पास से नदी बहती है। अतः वहाँ खाने-पीने की भी कमी नहीं आएगी। और दूसरी बात यह है कि अब हमें अधिक सुरक्षित स्थान की आवश्यकता है, क्योंकि आने वाले दिनों में तुम्हें प्रसव भी होने वाला है।
यह सुनकर कबूतरी बोली- वो सब तो ठीक है। लेकिन, मुझे यह बताओ कि उस नए स्थान पर क्या तुम्हारा कोई मित्र भी है कि नहीं? क्योंकि बड़े-बुजुर्गों ने यह स्पष्ट कहा है कि- जहाँ अपना कोई मित्र या सम्बन्धी न रहता हो वहाँ एक पल भी नहीं रहना चाहिए। भले