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शिक्षाप्रद कहानियां
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और क्रिया में सज्जनों के एकरूपता पायी जाती है।
उक्त श्लोक का भावार्थ यही है कि व्यक्ति के मन, वचन और काम में समानता होनी चाहिए। यह नहीं कि मन में कुछ चल रहा है, बोल कुछ और रहा है, और कर कुछ और कर रहा है। यह स्थिति बड़ी खतरनाक होती है, मनुष्य को पतन की ओर ले जाती है। कहा भी जाता है कि
मन मैला तन उजला, बगुले जैसा भेख। वासे तो कौआ भला, बाहर भीतर एक ॥
इस सन्दर्भ में मैं एक छोटी-सी कहानी यहाँ लिखने का प्रयत्न कर रहा हूँ।
प्राचीन समय में उत्तर भारत में एक बड़े ही दयालु, सत्यनिष्ठ और न्यायप्रिय राजा थे। वे स्वयं राज्य में घूम-घूमकर प्रजा का हाल-चाल व राज्यव्यवस्था सुचारू रूप से चल रही है अथवा नहीं यह देखते थे।
एक बार वे यह देखने के लिए कि राज्य की जेल में किसी व्यक्ति के साथ अमानवीय व्यवहार तो नहीं हो रहा है जेल में गये ।
संयोगवश उसी दिन चार नए कैदी जेल में आए थे। राजा ने सोचा क्यों न इन्हीं से पूछताछ की शुरुआत की जाए? अत: उन्होंने पहले कैदी से पूछा, 'तुमने क्या अपराध किया है?'
वह बोला- महाराज, मैने तो कोई अपराध नहीं किया। मैं बिलकुल निर्दोष हूँ। असल में हुआ यह कि आपका थानेदार असली गुनाहगार को तो पकड़ नहीं पाया और अपनी असफलता छिपाने के लिए मुझ पर झूठा इल्जाम लगाकर मुझे सजा दिलवा दी।
इसके बाद राजा ने दूसरे कैदी से वही सवाल पूछा। वह बोलामहाराज, बड़ा अनर्थ हो रहा है। मैं भी निर्दोष हूँ। असल में बात यह है कि थानेदार हमारा पड़ोसी है और एक दिन उसकी पत्नी और मेरी पत्नी में किसी बात पर कहा - सुनी हो गई। बस उसी दिन से थानेदार मुझे