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________________ शिक्षाप्रद कहानिया 107 बालक क्रमशः हर प्रश्न का उत्तर देने लगा। उस बालक के उत्तरों को सुनकर अचानक उस व्यक्ति को कुछ याद आया । वह तुरंत बालक के चरणों में गिर पड़ा और कहने गला - बेटा! मुझे माफ कर दो। अपने हाथों की हथकड़ी मुझे पहना दो। और तुम स्वतन्त्र होकर अपने घर जाओ। यह सब देखकर थानेदार भी सकपका गया और बोला- अरे ! ओ बुढे, ये थाना है तेरे घर की पंचायत नहीं है कि जो मरजी कर लिया। इस बालक ने चोरी की है। अतः दण्ड भी यही भुगतेगा । यह सुनकर वह व्यक्ति बोला- साहब जी ! चोर यह बालक नहीं, अपितु मैं हूँ। असल में जिस चोरी के अपराध में इस निर्दोष को पकड़ा गया था, वह चोरी मैंने की थी। मैंने और मेरे साथियों ने इसे फँसाया था। आज ये सारी बातें सुनकर मुझे अपने पापकर्म की याद आ गई। मैंने ही इसे बिना अपराध के अपराधी बनाया था और इसकी महानता देखो इसने आज मुझ अपराधी पर ही दया की है। केवल मेरे पुत्र के प्राणों को बचाने के लिए यह स्वयं मेरे साथ आया है। अतः थानेदार साहब! अब बिना बिलम्ब किए आप इसे छोड़ दीजिए और मुझे पकड़ लीजिए। और बेटा, तुम जाओ और अगर मेरे बीमार बेटे के लिए कुछ कर सको तो करना वरना, छोड़ देना उसे अपने हाल पर। यह सारी घटना न्यायालय पहुँची। उस असली चोर के पश्चाताप और अपनी गलती को स्वीकार करने के कारण जज साहब ने दोनों को एक साथ छोड़ दिया। ४७. सत्य की जीत यथा चित्तं तथा, वाचो, यथा वाचस्तथा क्रियाः । चित्ते वाचि क्रियायां च, साधूनामेकरूपता ॥ सज्जनों के जैसा मन में होता है वैसा ही वचन में और जैसा वचन में होता है वैसी ही उनकी क्रिया होती है। इस प्रकार मन, वचन
SR No.034003
Book TitleShikshaprad Kahaniya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKuldeepkumar
PublisherAmar Granth Publications
Publication Year2017
Total Pages224
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size477 KB
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