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महेश्वर हिंसा को हितकर समझता और नर्मदा अहिंसा को । यद्यपि दोनों की जाति एक थी, पेशा भी एक था और रहन सहन भी प्रायः एक समान थे। सहदेव ने पहले ही धारणा बना ली थी कि विवाह समान जाति, धर्म और गुण वालों के समान होना चाहिए। असमानता सर्वदा कष्टप्रद होती है। पति-पत्नि का जीवन समत्व में ही विकास को प्राप्त करता है। अतएव उसने महेश्वर के साथ नर्मदा का विवाह करने से इनकार कर दिया। उसने स्पष्ट रूप से कह दिया किसमत्य के बिना विवाह सम्भव नहीं है। पति-पत्नि की भिन्न विचारधारा होने से उन दोनों में कलह की सम्भावना बनी रहेगी जीवन के दो आदर्श होने पर दम्पत्ति के जीवन का विकास सम्भव रही हैं।
नर्मदा का सौन्दर्य उसके मन को बारबार आकृष्ट कर रहा था। वह सुंदरी इस भूतल का चन्द्रमा है। ऐसा सुन्दर पुष्प किस सरोवर में विकसित हुआ है, यह अनुमान गम्य नहीं है। उसका सौन्दर्य प्रवाह देश और काल की सीमाओं के ऊपर होकर है और रूप, वह तो अपने आप में सीमा है। उसकी मधुर वाणी तो अमृत के समान है। ऐसी सुन्दरी के साथ विवाह किये बिना जीवन निस्सार है, मेरी योग्यता को धिक्कार है, वैभव को धिक्कार है, इस रमणी के बिना जीवन व्यर्थ है।
जैन चित्रकथा
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सहदेव के इस उत्तर को सुनकर महेश्वर अवाक रह गया। उसे अपने वैभव रूप लावण्य और सम्मान का अहंकार था। वह समझता था कि कोई भी व्यक्ति मुझे अपनी कन्या देने में सौभाग्य समझेगा आधार की विभिन्नता बाधक होगी यह तो उसने कभी सोचा भी नहीं था। महेश्वर को यह अपना अपमान प्रतीत हुआ। वह इस समय सार्थवाहों का प्रधान था। जिधर व्यापार के लिए वह जाता उसके साथ सैकड़ों सार्थवाह चलते व्यवसायी होने के साथ वह शूरवीर भी था। उस जैसा कुशल धनुष बाणधारी और खड़ग चलाने में प्रवीण दूसर व्यक्ति नहीं था।
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| आज महेश्वर विशेष उदास है। किसी कार्य में उसका मन नहीं लग रहा है। संध्या हो गयी है, चन्दमा की ज्योत्स्ना चारों ओर विकीर्ण है। भूमण्डल रजतमय हो गया है। नर्मदा के विशाल जल विस्तार | पर हंस युगलों का विरल क्रीड़ा रव रह रह कर सुनाई पड़ता है। देवदारू वन और रजनीगंधा का सुगंधी लेकर वासन्ती वायुमय वातावरण ने महेश्वर की विकलता को बढ़ा दिया है। भीतर से पवन जितना ही अधिक तरल, कोमल ओर चंचल हो रहा था, बाहर से उतना ही अधिक कठोर स्थिर और विमुख दिखलाई पड़
रहा था।
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