________________
साहस एकत्र करतात! मैं भाग्य से प्रताड़ित नर्मदपुर के व्यवसायी वीर दास ने सहदेव की पुत्री और वर्द्धमानपुर के सार्थवाह। पूछा-देवी! तुम माहेश्वर दत्त की पत्नी हूँ। मुझ भाग्यहीन को
दोगडाका मेरा पति न मालूम किस कर्मोदय का दण्ड देने उद्देश्य से निवास के
के लिए यहाँ सोते छोड़कर चला गया है।
अब में यहाँ फलाहार करती हुई तपश्चरण करती हो?
पूर्वक अपना समय व्यतीत कर रही हूँ।
वीरदास की आवाज को पहचान कर नर्मदा अपने चाचा के चरणों में लिपट गयी और फूट-फूट कर रोने लगी। यतः आत्मीय व्यक्तियों के मिलने पर दुःख पुनः नया हो जाता है। पहाड़ी झरना पत्थर की चट्टान से अवरूद्ध रहता है। पर जैसे ही वह चट्टान को तोड़ देता है, पुनः अत्यधिक वेग से प्रवाहित होने लगता है। इसी प्रकार जो दुःख किसी कारण वश नीचे दबा रहता है, वह आत्मीय स्वजनों के मिलने पर एकाएक पुनः फूट पड़ता है।
ALSO
नर्मदा को वीरदास ने अश्वासन तात! पता नहीं किस अपराध के उक्त वृतांत को सुनकर वीरदास के मन में वेदना हुई और दिया, उसे नाना प्रकार से सांत्वना कारण मेरे पति मुझे यहाँ सोती हुई| उसने नर्मदा को धैर्य देकर स्नान उबटन अलंकरण। देकर समझाया और कहा- छोड़कर चले गये। जब मैं अपने भोजन एवं दुग्धपान आदि कराया, इस प्रकार भोजन बेटी! धैर्य धारण करो और यह पति के विरह में भ्रमण कर रही थी। आदि की व्यवस्था होने से नर्मदा सुन्दरी स्वस्थ हो गयी।
वीरदास ने अपने सेवकों को आदेश दिया। बतलाओ कि तुम्हारी यह स्थिति तो आकाशवाणी सुन कर मैं ने किस कारण हुई? तथ्य की जानकारी प्राप्त की।
नर्मदा की प्राप्ति होने से मेरे स्वामिन्! हम लोग बहुत मनोरथ सफल हो गये. आगे चले आये हैं। यहाँ से अत: यहीं से अपने देश को बब्बर कूल पास ही है। अत: लौट चलना चाहिए। आगे अब वहाँ तक चले बिना चलने से कोई लाभ नहीं। लौट चलना उचित नहीं।
| उसने यहाँ आने तक का सारा वृतान्त कह सुनाया..
जैन चित्रकथा