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मैं निश्चल हूँ, अनेकों भवों में भटकने पर व अनेक कषायें करता हुआ भी मेरा चैतन्य स्वरूप ज्यों का त्यों रहा, मैं कभी अचेतन नहीं हुआ। और मैं निष्काम मी हूँ यानि इच्छा से रहित चैतन्य स्वभावी हूँ ।
भैया, बात तो आपकी ठीक ही जंचती है। मैं पर पदार्थो में बहुत प्रयत्न करता हूँ यह करूँ, वह करूँ पर करे कुछ भी तो नहीं पाता।
बस यही या कुछ और भी ?
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और हां, यह भी और समझ लो कि तुम भी किसी का कुछ नहीं कर सकते, इसलिए जो हो रहा है उसको जानते देखते रहो अजायबघर में रखी चीजों की तरह। यानि ज्ञाता हष्टा बने रहो।
हाँ भैया, बिल्कुल ठीक है। वर्णी जी ने भी तो यही कहा है " हूँ स्वतन्त्र, निश्चल, निष्काम। ज्ञाता, दृष्टा, आत्मराम ।
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