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सुकुमाल ने मुनि यशोभद्र के वचन सुने और |: "ज्यों ज्यों भोग संयोग मनोहर मनबांछित जन पावें । उन्हें जाति स्मरण हो गया-विचारने लगे.... तृष्णानामिन त्यो त्यों डके, लहर जहर की आवे_1".
शरीर जिसको मैं मान रखा है, मल मूत्रविष्टा की स्वान
है, नश्वर है इसमें पोषण में सुख कहां? इस संसार में सुख की खोज मैं ही तो था पदानाभदेव । जब वहां के भोगो से भी तत्तिमही हुई तो यहां के भोगतो न कुछ
करना मूर्खता नहीं तो क्या है? चारों गलियों में दुखही दुख है। के बराबर है। उनसे प्तिकहाँ ये भोग
"जो संसार विषैसल होता, तीर्थकर क्यो त्यागे । काहे को शिवसाघन करते. निस्सार हैं, पराधीन है।
संयमसो अनुरागें।" बस अब मैं जागगया हूं चलूं अपना कल्याणकरने
परन्तु
कैसे निकलूं इस महल से? सब द्वार बंद है, द्वार पर पहरा है कहीं से भी निकला नहीं जा सकला। अरे हा! दिवा- यह जो रिवड़की है इससे ही निकला जा सकता है परन्तु कैसे? प्रश्न तो यह है। समझ में आया। क्यों न अपनी पत्नियों की साड़ियों को आपस में बांधकर एक रस्सी पी बना लं और उसको खिड़की से बांधकर नीचे लटका कर उसके सहारे सहारे नीचे उतर जाऊ- - - ... बस काम बन गया । ।