________________ 16 सिरिस्वणलेहरसूणिह-संकलिया केवि पासंति निक, केवि वर केवि सुंदरि कन्न। - केवि तोएँ उज्झाय, केकि पसंसति सिवधम्म / / 161 / / सुरसुंदरिसम्मागं, मवणाइ विडंबणं जणो दई। सिषसासणप्पसंस, निषसासणनिंदगं कुणइ // 162 / / इओम-निअपेडयस्स मज्ज्ञे, रवणीए उंबरेण सा मयणा / मणिआ भद्दे ! निसुणसु, इमं अजुत्तं कयं रन्ना // 163 / / तहवि न किपि विणढ़, अज्जवितं मच्छ कमवि नररयणं / जेणं होइ न विहलं, एयं तुह रूवनिभ्माणं // 164 // इअ पेडयस्स मज्झे, तुज्झवि चिटुंविआइ नो कुसलं / पायं कुसंगजणिअं, मज्झवि जायं इमं कुटुं // 165 // वो तीए मयणाए, नयणंसुयनीरकलुसवयणाए। पइपाएमु निवेसिअ-सिराइ भणिअं इमं वयणं // 166 // सामित्र ! सव्वं मह आइसेंसु किंचेरिसं पुणो वयणं / नो भणियध्वं जं दुहवेइ मह माणसं एयं // 167 // अन्नं च पढमं महिलाजम्मं, केरिसयं तंपि होइ जइ लोए सीलविहणं नूणं, ता जाणह कंजिअं कुहिकं // 168 // सीलं चिअ महिलाणं, विभूसणं सोलमेब सव्वस्सं / सीलं जीवियसरिसं, सोलाउ न सुंदरं किंपि // 169 // ता सामिअ ! आमरणं, मह सरणं तंसि चेव नो अन्नो। इअ निच्छियं वियाणह, अवरं जं होइ तं होउ // 170 // एवं तीए अइनिच्च-लाइ ददसत्तपिक्खणनिमित्तं / सहसा सहस्सकिरणो, उदयाचलचूलि पत्तो॥१७॥