________________ को यात्रा करते हुए शिखर जी की बन्दना करके ईसरी में रहने का विचार किया है - आप भी मेरे साथ चलिमे, मेरी ज़बान खुल गई है, रास्ते में उपदेश देते चलेंगे। बावू जी ने स्वीकृति दी, किन्तु दिन निकलने पर जुबान फिर वन्द हो गई। 6 जनवरी 1942 की रात्रि को लघुशंका निति करके खड़े होने पर एकाएक गिर पड़े और कहने लगे कि मेरी कूल्हे की हड्डी टूट गई / किंतु आर्तनाद, क्रदन, हाय-हाय रंचमात्र भी नहीं किया। प्रातः डाक्टर को दिखाया तो उसने मेडीकल कालेज ले जाने की सलाह दी-ज्ञात हुआ कि कूल्हे की हड्डी चार जगह से टूट गई है। पैर से कूल्हे तक पूरी टांग पर 10 ता० को प्लास्टर चढ़ा दिया गया और 14 जनवरी को उन्हें अजिता -श्रम ले आया गया, किन्तु 2 ता० को जब यह ज्ञात हुआ कि प्लास्टर के अन्दर घाव हो गये हैं तो मेडिकल कालेज में ले जा कर प्लास्टर कटवाकर घावों का इलाज चला। डाक्टर रोज गनी हुई बाल, बिना बेहोशी की दवा सुँघाए काटते थे, किन्तु ब्रह्मचारो जो के चेहरे पर पीड़ा के चिन्ह नहीं दिखाई देते थे, न कभी उन्होंने 'हाय' शब्द मुंह से निकाला। घाव बढ़ता ही गया और 6 फरवरी को उन्हें अस्पताल से टाट पट्टी आहियागंज की धर्म शाला में ले आया गया। सागर के एक धनी जमींदार के सुपुत्र श्री राधेलाल समैया, जो राष्ट्रीय सत्याग्रह में जेल यात्रा भी कर आये थे लखनऊ आये और भक्तिवश ब्रह्मचारी जी की सेवा में तल्लीन हो गये / वह अपने हाथ से उनका मल-मूत्र धोते, कपड़े बदलते, अस्पताल में उनके पलंग के पास ही भूमि पर सोते, और हर प्रकार की कल्पनातीत परिचर्या उत्साह पूर्वक करते थे / अस्पताल से आने पर धर्मशाला में भी उनकी बैयात यथावत करते रहे। उन्हीं दिनों स्याद्वाद विद्यालय काशी के पंडित महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य भी आये और ब्रह्मचारी जी उनके धर्मोपदेश ध्यानपूर्वक सुनते रहे / महेन्दकुमार जी के शब्दों में ब्रह्मचारी जी अपने शरीर से ममत्व भाव निकाल चुके थे, उन्होंने बिना बेहोशी की दवा लिये बड़ा दुःखप्रद आपरेशन आह किये बिना ही करा लिया- आपरेशन करने वाले डाक्टर को भी अपने जीवन में यह पहला ही अनुभव हुआ" 48