________________ महा-प्रयाण तीव्र असाता कर्म के उदय से पूज्य ब्रह्मचारी जी अपने जीवन के अन्तिम साधिक तीन वर्षों में रोग के प्रबल प्रकोप से आक्रान्त रहे। रोग के कारणों पर प्रकाश डालते हुये स्व. बा. अजितप्रसाद जी ने (ब० सीतल, पृ० 114 आदि में) लिखा है कि 'ब्रहमचारी जी ने पूरे पांच वर्ष तक सोच विचार करके अपनी योग्यता, सहन शक्ति और धैर्य का अन्दाजा लगाकर श्राबक की सप्तम प्रतिमा धारण की थी, परन्तु वह वह वास्तव में अनागार साधु सदृश सतत् बिहार करते रहे सिवाय चातुर्मास के अतिरिक्त किसी एक स्थान पर वह अधिक दिन नहीं ठहरते थे / इस नियम का अपवाद कभी कभी हो जाता था जबकि उनको किसी ग्रन्थ के संपादनार्थ अन्य पुरूष के सहयोग को आवश्यकता होती थी या कोई विशेष धार्मिक कार्य उपस्थित हो जाता था / रेलयात्रा का उनको इतना अभ्यास हो गया था कि चलती मेल ट्रेन में भी वह लिखते रहते थे, त्रिकाल सामयिक भी कर लेते थे / कभी कभी कलकत्ते से बम्बई तक बिना कहीं रास्ते में ठहरने हुए निर्जल उपवास करते चले जाते थे / उनकी इस असामान्य वृत्ति के कारण कुछ हास्यरसास्वादी उनको “रेलकाय का जीव" कहा करते थे / महात्मा गांधी के आचरणानुसार ब्रह्मचारी जी सदैव रेल के तीसरे दर्जे में ही सफर करते थे परन्तु बिना किसी साथी, मददगार या सेवक के अकेले ही बिहार किया करते थे / भोज्य पदार्थ की शुद्धता के नियम के कारण उनको कभी कभी उपवास करना पड़ जाता था और कभी रूखी खिड़की या बिना घी की दाल रोटी पर ही रहना पड़ता था। अष्टमी चतुर्दशी का तो निर्जल उपवास और अन्य दिन चौवीस घंटे में एक समय भोजन तो उनका नित्य नियम था / इस प्रकार का कठिन जीवन सहते सहते और अविराम लिखते रहने का परिश्रम करते करते, उनके शरीर पर वायुकंप रोग ने आक्रमण कर दिया / हाथ की और पैर की उगलियां हिलती रहने लगीं, हाथ कांपने लगे, लिखना मुश्किल हो गया, पँर लड़खड़ाने लगे, शरीर कृश हो चला 1938 में रोहतक के श्रीयुत लालचन्द्र जी, नानकचन्द जी, उग्रसेन जी तथा अन्य साधर्मी भाइयों ने उनकी सेवा, वैयावृत्य, सव