________________ ब्रह्मचारी जी की वैराग्य भावना हे नित्य न कोई वस्तु जान संसारो. याके भ्रम में नित फसे रहें व्यवहारी। तन धन कुटुम्ब ग्रह क्षेत्र क्षणक में विनसे. भावो अनित्य यह भाव आत्म चित परसे // 1 // कोई न शरणत्रैलोक्य मांहि तुम जानों, नर नारक देव तिर्यन्व कालगत मानों। रे आतम, शरण गहो पवित्रातम की. निर्भय पद लहके तजो फिरन गति-गति की // 2 // चऊं गति दुखकारी जीव सुख नहीं पावे, गयो काल अनन्ता बीत, छोर नहीं आवे / जिनवर के धर्म बिन गहे सुभग न लखावे, सुवसागर है जिन धर्म, भव्य नित न्हावे // 3 // इकले ही जग्में, मरे, कर्मफल भोगे, इकलों रोवे, दुख लहे, पाप के जोगे / जब मरे, छोड़ तब साथ, एकला जावे, एकाकी आतम सत्य सुधी न ध्यावे // 4 // बारह भावों का भाव नित्य संसारी, ज्यों रात मिथ्यातम मिटें उषा हो जारी / आत्म ज्ञान का सूर्य करे उजियाला, जिसके प्रगटें पर पौवें अमत प्याला // 5 // ज्यों ज्यों स्वतृप्तता बढ़ , विषय सुख भूलें, चरित्र हस्ति तिस घर के द्वार में नित झूले / चढ़ चले, सुगम पद धरे, मोक्ष बस्ती को, पहुंचे शिवतिय को मिलें, तजे हस्ति को // 6 // 42