________________ उपशमादि न होने से महाव्रत का पालन करते हुए प्रशमादिभाव रहते हुए भी वह मिथ्यात्वगुणस्थानवी ही रहा। - और भी देखो समयसार गाथा नं. 152 आत्मख्याति "परमट्ठम्हि दु अठिदो जो कुणदि तवं वदं च धारेई / तं. सव्वं बालतवं बालवदं विति सव्वण्हू // 152 / / अर्थ - जो जीव परमार्थ में (शुद्धात्मानुभूति में ) स्थित नहीं और तप करता है तथा व्रतों को धारण करता है तो उन सब तप और व्रतों को सर्वज्ञदेव बालतप (अज्ञानतप) बालव्रत (अज्ञानव्रत) कहते हैं।" . इससे सिद्ध होता है कि शुद्धात्मानुभूति से रहित अणुव्रत अथवा महाव्रत, प्रशमादिभाव मिथ्यात्वगुणस्थान में भी दिखाई देते हैं। शुद्धात्मानुभूति से रहित. जो जीव है वह मोक्षमार्गस्थ नहीं है और जो शुद्धात्मानुभूति से सहित * है, वह सम्यक्त्वी है - मोक्षमार्गस्थ है। देखो - रत्नकरंड श्रावकाचार श्लोक नं. 33 "गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोहो नैव मोहवान् / अनगारो गृही श्रेयान् निर्मोहो मोहिनो मुनेः // 33 // अर्थ - दर्शनमोह से रहित (शुद्धात्मानुभूतिवाला) अव्रती गृहस्थ मोक्षमार्गस्थ (सम्यक्श्रद्धा, सम्यक्ज्ञान और सम्यक् चारित्र' स्वरूपाचरण चारित्र सहित) है लेकिन दर्शन मोहसहित (शुद्धात्मानुभूतिसे रहित ) 1 टीप - श्लोकवार्तिक अ. 1, सू. 1 कारिका 105 में की वृत्ति "न हि चारित्रमोहोदयमात्राद् भवचारित्रं दर्शनचारित्रमोहोदयजनिताद् अचारित्राद् अभिन्न एव इति साधयितुं शक्यं, सर्वत्र कारणभेदस्य फलाभेदकत्वप्रसक्ते : / " अर्थ - चौथे गुणस्थान में दर्शन मोहनीय के संबंध से रहित होकर केवल चारित्रमोहनीय के उदय से होनेवाला जो चारित्र है, वह पहले गुणस्थान में दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय के उदय से होनेवाले मिथ्याचारित्र से अभिन्न ही है, इस बात को सिद्ध करना शक्य नहीं है। शक्य न हो तो भी मान लिया तो सर्वत्र कारणभेद होनेपर भी कार्यफल में अभेद मानने का प्रसंग आ जायेगा।