________________ (16) से च्युत होने पर पुनः उन में स्थापनस्वरूप प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्त्य और व्युत्सर्ग नामक अभ्यन्तर तपों के अनुष्ठानों में (आचरण में) जो कुंशलबुद्धिवाला है; परंतु वह निरपेक्ष तपोधन साक्षात् मोक्ष के कारणभूत स्वात्माश्रित आवश्यककर्म को निश्चय से परमात्मतत्त्व में विश्रान्तिरूप निश्चयधर्मध्यान को (शुद्धात्मानुभूतिको) नहीं जानता नहीं अनुभवता, तब शुक्लध्यान भी नहीं जानता याने उस जीव को स्वानुभव नहीं है, इसलिये धर्मध्यान ही नहीं है- वह प्रथम गुणस्थानवी जीव है मिथ्यादृष्टि जीव है, क्योंकि आसन्नभव्यता गुण अभी तक प्रकट नहीं हुआ है। इसलिये वह जीव महाव्रतका पालन करता है, प्रशमादि बाह्य परिणाम भी उसके पास हैं लेकिन शुद्धात्मानुभव नहीं है इसलिये मिथ्यात्वी है, परद्रव्यगत होने से अन्यवश कहा गया है। - आगे कहते हैं, कि " आसन्नभव्यतागुणोदये सति" आसन्नभव्यत्व प्राप्त होगा तब “परमगुरुप्रसादासादितपरमतत्त्वश्रद्धानपरि ज्ञानानुष्ठानात्मकशुद्ध निश्चयरत्नत्रयपरिणत्या निर्वाणमुपयातीति" (उस समय ही) परमगुरु के प्रसाद से प्राप्त परमतत्त्व की श्रद्धा, ज्ञान, अनुष्ठान प्राप्त होगा याने सम्यक्त्व प्राप्त होगा (शुद्धात्मानुभव प्राप्त होगा) उसके बाद ही मोक्ष प्राप्त होगा। और भी देखो प्रवचनसार गाथा नं. 79 तत्त्व प्रदीपिका "चत्ता पावारंभं समुट्ठिदो वा सुहम्मि चरियम्मि / ण जहदि जदि मोहादी ण लहदि सोअप्पगं सुद्धं // 79 // अर्थ - पापारंभ को छोडकर शुभ चारित्र में उद्यत हेने पर भी यदि जीव दर्शनमोहादि को नहीं छोडता (मिथ्यात्वी हो तो) वह शुद्धात्मा को प्राप्त नहीं होता।" याने शुद्धात्मानुभव नहीं (शुद्धोपयोग नहीं) है तो दर्शनमोह का