SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हटाया जा सकता है, किन्हें अधीन किया जा सकता है, किन्हें अपने वश में किया जा सकता है। साम, दाम, दण्ड, भेद की नीति अपनाकर कार्य को सिद्ध करना राजा की निपुणता होती है। भरतेश्वर ने ना तो कभी तलवार पर अपना हाथ लगाया था और न डोरी ही धनुष पर चढ़ाई और केवल अपनी प्रभुत्व शक्ति से मार्ग में किन्हीं को सन्धि द्वारा, किन्हीं को युद्ध द्वारा, किन्हीं को द्वेधीभाव द्वारा जीतते गये और राज्य का विस्तार करते गये। अभिमान क्षय से विशुद्धि दिग्विजय के पश्चात् जिनेन्द्र देव के दर्शनों का आनन्द लेकर भरत अपने नगर अयोध्या लौटे। नगर के द्वार पर शस्त्रागार के बाहर उनकी दिग्विजय का चक्र रुक गया जो उनकी दिग्विजय को चनौति दे रहा था। सोचने लगे कि राज्य के बाहर की सीमाओं के सभी राज्यों को तो जीत लिया है, परन्तु कोई राज्य ऐसा है जो अभी अविजित है अर्थात् बाहर के सभी मण्डल तो जीत लिये, परन्तु अन्तर्ममण्डल की विशुद्धता अर्थात् घर के लोगों की अनुकूलता अब तक भी प्राप्त नहीं हुई है। सचमुच अन्दर का एक भी शत्रु बाहर के हजारों शत्रुओं से अधिक शक्तिशाली होता है। पूरे विश्व को विजय प्राप्त कर, अठानवें भाइयों का राज्य प्राप्त करने के पश्चात् भी भरत तृप्त नहीं हुए, क्योंकि उनके एक भाई बाहुबली ने उनकी अधीनता स्वीकार नहीं की। भरत और बाहुबली दोनों के बीच आत्माभिमान की रक्षा ने युद्ध को अनिवार्य कर दिया। बाहुबली के स्वाभिमान ने भरत को ललकारा कि भरत मुझे पराजित किये बिना वह इस पृथ्वी का उपभोग नहीं कर सकता। शूरवीरता केवल वचनों से नहीं अब तो युद्धरूपी कसौटी पर ही मेरा और भरत का पराक्रम होना चाहिए। भरत का क्रोध क्षणभर के लिए जागृत हो गया। वास्तव में वह व्यक्ति जीता हुआ भी हारे के समान है जिसने क्रोध पर विजय प्राप्त नहीं की। भरत को क्रोधाग्नि व अभिमान को शान्त करते हुए सलाह दी कि दोनों चरमशरीरी है, दिव्यशक्तिधारी हैं, दोनों के पास सशस्त्र सेना है,यदि युद्ध हुआ तो भारी नरसंहार होगा और भगवान् ऋषभ की सन्तान होने से निन्दा भी होगी। शक्ति परीक्षण के लिए केवल भरत-बाहुबली के बीच जलयुद्ध, मल्लयुद्ध एवं दृष्टियुद्ध हुआ। तीनों ही अहिंसक युद्धों में बाहुबली विजयी हुए तब भरत ने कुपित होकर अपनी पूरी शक्ति से आवेश में आकर और मर्यादा को विस्मृतकर बाहुबली का शिरश्छेदन हेतु चक्ररत्न का प्रयोग किया पर चक्र बाहुबली की प्रदक्षिणा कर पुन: भरत के पास लौट गया। भरत बाहुबली का कुछ भी नहीं बिगाड़ सका, अपितु बाहर के युद्ध के बजाय अन्दर का युद्ध प्रारम्भ हो गया। भावों के चढ़ते परिणामों से बाहर से भाई को जीतने की चाह समाप्त हो गयी। अपने को जीतने की चाह जागृत हो गयी। बाहुबली ने विरक्त होकर जंगल में जाकर दीक्षा ले ली। एक ओर दिशा बदली तो दूसरी ओर अहङ्कार झुक गया। भरत बाहुबली के प्रति प्रणत हो गये। योगी और न्यायप्रिय राजा दिग्विजय के पश्चात् अयोध्या में लौटने पर भरत एक अनासक्त योगी की तरह न्यायपूर्ण शासन करने लग गये। विराट् राज्य वैभव का उपभोग करने पर भी वे अनासक्त रहे थे। सम्राट होने पर भी साम्राज्यवादी नहीं थे। तन से गृहस्थाश्रम में थे पर मन से उपरत् थे। वे राजशास्त्र, धर्मशास्त्र एवं सभी कलाओं के धनी थे। समाज की व्यवस्था किस प्रकार स्वस्थ बनायी जाए इसके लिए उन्होंने राजनैतिक, सामाजिक-व्यवस्था सम्बन्धी अनेक महत्त्वपूर्ण दिशा-निर्देश दिये। यथा 1. समाजवाद का सिद्धान्त- भरत ने धन कमाने का मुख्य फल बताया कि व्यक्ति धन का स्वयं उपभोग करे तथा दूसरों में भी विभाजित करें। अर्थार्जन के साथ विसर्जन भी हो, सम्यक् वितरण भी हो, जिससे स्वस्थ समाज की संरचना हो सके। -85
SR No.032866
Book TitleJain Vidya Ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain
PublisherGommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
Publication Year2006
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy