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________________ को कुछ समय बाद पूर्वभव के स्मरण से आत्मबोध उत्पन्न हुआ। वे राजभोगों से विरक्त हुए। लौकान्तिक देवों ने आकर उनका स्तवन किया। चक्री कुन्थुनाथ अब चक्री नहीं रहे। उन्होंने पुत्र को राज्यभार सौंप दिया और स्वयं संयमी हो गये। देवों सहित इन्द्र ने आकर हस्तिनापुर में दीक्षाकल्याणक मनाया। उन्हें विजया नामा पालकी में बैठाकर हस्तिनापुर के सहेतुक वन ले जाया गया जहाँ उन्होंने तेला का नियम लेकर वैशाख शुक्ला प्रतिपदा के दिन कृतिका नक्षत्र में सायंकाल के समय एक हजार राजाओं के साथ मुनि दीक्षा धारण की। दीक्षित होते ही उन्हें मनःपर्यय ज्ञान हो गया था। ज्ञान-कल्याणक : दीक्षोपरान्त कुन्थुनाथ की प्रथम पारणा हस्तिनापुर में तत्कालीन राजा धर्ममित्र के यहाँ सम्पन्न हुई थी। आहार में गो-क्षीर से निष्पन्न खीर दी गयी थी। वे सोलह वर्ष तक छद्मस्थ रहे। इसके पश्चात् चैत्र शुक्ला तृतीया के दिन अपराह्न में कृतिका नक्षत्र के उदयकाल में हस्तिनापुर के सहेतुक वन में ही तिलक वृक्ष तले उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ था। केवली होते ही इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने समवसरण की रचना की थी जहाँ इन्हें धरातल से पाँच हजार धनुष ऊपर बैठाया गया था। इन्द्रादि सभी देवों ने ज्ञानकल्याणक की हर्षपर्वक पूजा की थी। इस प्रकार कुन्थुनाथ के प्रथम चारों कल्याणक हस्तिनापुर में ही सम्पन्न हुए थे। पवित्रता प्राप्त करने का सौभाग्य हस्तिनापुर को मिला जिसके फलस्वरूप हस्तिनापुर की भूमि आज भी वन्द्य है। संघ-परिचय : केवली कुन्थुनाथ के संघ में स्वयम्भू आदि अष्ट ऋद्धिधारी पैंतीस गणधर थे। मुनि की संख्या साळ हजार थी। इनमें पूर्वधर मुनि 700, शिक्षक 43150, अवधि ज्ञानी मुनि 2500, केवली 3200, विक्रिया ऋद्धिधारी 5100, विपुलमति ज्ञानी 3350 और वादी मुनि 2000 थे। भावितादि 60350 आर्यिकाएँ संघ में थीं। श्रावक 100000 और श्राविकाएँ 300000 थीं। देव-देवियाँ, मनुष्य और तिर्यञ्च तो असंख्य थे। साठ हजार मुनियों में 46800 मोक्ष गये और शेष विभिन्न स्वर्गों में उत्पन्न हुए। निर्वाण-कल्याणक : आयु का एक मास शेष रहने पर केवली कुन्थुनाथ ससंघ विहार करते हुए सम्मेदाचल आये थे। यहाँ वैशाख शुक्ला प्रतिपदा के दिन प्रदोषकाल में कृतिका नक्षत्र के रहते कायोत्सर्ग आसन से एक हजार मुनियों के साथ ज्ञानधर कूट से मोक्ष गये थे। देवों ने आकर आपके मोक्षकल्याणक की सम्मेदाचल पर पूजा-वन्दना की थी। : जैन शिल्प में कुन्थुनाथ तीर्थङ्कर-प्रतिमा : चौबीस तीर्थङ्करों में शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ और अरनाथ ये तीन तीर्थङ्कर मात्र ऐसे हुए हैं जो तीर्थङ्कर, चक्रवर्ती और कामदेव इन तीन पदों से विभूषित हुए है। पदों की गरिमा के कारण ये अत्यधिक लोकप्रिय हए। ग्यारहवीं-बारहवी सदी में तीनों की प्रतिमाएँ एक ही फलक पर निर्मित की जाने लगीं। पाषाण फलक हो या पीतल फलक। कहीं भी इनकी स्थिति, आसन आदि में एकरूपता नहीं मिलती। कहीं तीनों प्रतिमाएँ एक ही फलक पर निर्मित हैं तो कहीं पृथक्-पृथक् फलकों पर निर्मित हैं। किन्हीं फलकों पर कायोत्सर्ग मुद्रा में अंकित हैं तो किन्हीं फलकों पर पद्मासन मुद्रा में हैं। किसी फलक में शान्तिनाथ प्रतिमा मध्य में है और उसकी बायीं ओर कुन्थुनाथ प्रतिमा तथा दायीं ओर अरनाथ-प्रतिमा है। किसी फलक में बायीं ओर अरनाथ और दायी ओर कुन्थुनाथ-प्रतिमा है। किसी फलक में तीर्थङ्कर क्रम अपनाया गया है- शान्ति, कुन्थु और अरनाथ-प्रतिमाएँ क्रमश: दर्शायी गयी हैं। -50.
SR No.032866
Book TitleJain Vidya Ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain
PublisherGommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
Publication Year2006
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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