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________________ उम्र के साथ ऋषभ का शैशव दूज के चाँद की तरह अपनी सम्पूर्ण कलाओं के साथ बढ़ने लगा। ऋषभ जन्मजात तीन ज्ञान से (मति-श्रुत-अवधि) समृद्ध थे। उनकी विलक्षण प्रतिभा थी। जागृत प्रज्ञा थी। विश्व विद्याओं में पारङ्गत थे। बिना विद्यालय गये कलाओं में निपुणता, सम्पूर्ण विद्याओं में प्रवीणता और समस्त क्रियाओं में अपूर्व चतुरता प्राप्त थी। ऋषभ बाल्यावस्था में ही सर्वविद्याविद् बन गये थे। उनके गुणों के विकास का सम्पूर्ण वृत्त मानव जाति के विकास का प्रेरक वृत्त है। शारीरिक विकास के साथ ऋषभ में गुणों का विकास भी उम्र के साथ बढ़ता गया। उनके शरीर का संस्थान समचतुरस्र और संहनन वज्रऋषभनाराच था। ऋषभ की जैसी रूप सम्पदा थी, वैसी ही भोग सम्पदा थी। उनका शरीर 108 शुभ लक्षण और नौ सौ व्यञ्जनों से सशोभित था। पुण्य कर्म के उदय से दिव्य भोग भोगते हुए और देवकुमारों के साथ विविध बालक्रीड़ाएं करते हुए राजकुमार ऋषभ ने यौवन में प्रवेश किया। यौवन की दहलीज पर पैर रखते ही ऋषभ का सौन्दर्य शत गुणित होकर निखरने लगा। कवि के शब्दों में पुण्योदय से ऋषभ को सब कुछ प्राप्त था- सुन्दर शरीर, निरोगता, ऐश्वर्य, धन-सम्पत्ति, सुन्दर बल, आयु, यश, बुद्धि सर्वप्रिय वचन और चतुरता। यौवन का अभ्युदय देखकर पिता नाभि ने यह जानते हुए भी कि ऋषभ चरमशरीरी जीव है, धर्मतीर्थ के प्रवर्तक बनेंगे, उन्होंने शादी का प्रस्ताव रखा और समाज-व्यवस्था के सम्यग् संचालन, निर्बाध वंश-परम्परा का सम्पादन, गृहस्थ धर्म का कर्तव्य बोध समझाया। ऋषभ ने पिता की आज्ञा को ओम् कहते हुए स्वीकृति दे दी। नाभिराज की प्रेरणा या आज्ञा से उन्होंने कच्छ, महाकच्छ राजाओं की बहिनें यशस्वती और सुनन्दा से शादी की। महारानी यशस्वती से भरत आदि 99 पुत्र एवं पुत्री ब्राह्मी का जन्म हुआ और महारानी सुनन्दा ने बाहुबली और सुन्दरी नामक पुत्री को जन्म दिया। __ ऋषभ सर्वविद्या के धनी थे। वे व्यक्तित्व विकास के लिए अपने पुत्र-पुत्रियों को भी सर्वविद्याओं में पारङ्गत करना चाहते थे। ऋषभ ने मनुष्य जन्म की सार्थकता पर विचार-विमर्श किया और देखा कि सुन्दर शरीर, अनुपमेय अवस्था और दीप्तिमान चरित्र विद्या से विभूषित होना चाहिए। ऋषभ ने ज्ञान के प्रति आकृष्ट करने के लिए विद्या की गहराई बतलाई और अपने रागी पत्र-पत्रियों को जीवन से जडी हर विद्या का सम्यक ज्ञान कराया। इस प्रकार प्रजाहित के लिए, अभ्युदय के लिए पुरुषों को बहत्तर कलायें, स्त्रियों को चौसठ कलाएँ और सौ प्रकार के शिल्पों का ज्ञान कराया। इसी समय यौगलिक युग का पर्यावरण बदलने लगा। कल्पवृक्ष रस, वीर्य और विपाक आदि से रहित होने लगे। जो धान्य बिना बोए ही उत्पन्न होता था वो भी नहीं फलता। भूख, प्यास, रोग से तन और मन पीड़ित होने लगे। प्रकृति, स्वभाव, उपज, फल आदि में ह्रास होने लगा। शीत, आतप, महावायु और वर्षा का भी उपद्रव प्रकट होने लगा। व्यवस्था संचालन की प्रक्रिया में हकार, मकार और धिक्कार- इन तीनों दण्ड नीतियों को जब निष्प्रभावी देखा तो समयज्ञ ऋषभ ने परिस्थिति का पर्यवेक्षण करके राजशक्ति का प्रयोग किया। लोगों को समझाया- अब एक राजा की जरूरत है। दण्डव्यवस्था करनी होगी, तभी अपराध से बच सकेंगे। समस्याओं से समाधान पाने के लिए जनता राजा नाभि के पास पहुंची और अपने दुःख मुक्ति के लिए -23
SR No.032866
Book TitleJain Vidya Ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain
PublisherGommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
Publication Year2006
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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