________________ से तेलुगु का व्यवहार आम जनता में घरों तक सीमित रहा। सातवाहन नरेशों ने शिलालेखों और दानपत्रों में तेलुगु का प्रयोग प्रारम्भ किया। ग्यारहवीं शती ई. में हुए नन्नय भट्ट तेलुगु के ज्ञात आदि कवि पण्डित माने जाते हैं। उसके पूर्व का साहित्य धार्मिक विद्वेष की अग्नि में स्वाहा हो गया। तदपि उस अज्ञात युग में भी वांचियार नामक जैन लेखक द्वार तेलुगु में छन्दशास्त्र लिखे जाने, श्रीपति पण्डित और सन् 941 ई. में हुए पद्म कवि द्वारा 'जिनेन्द्र पुराण' रचे जाने का उल्लेख मिलता है। जैन कवि भीमना के 'राघवपाण्डवीय काव्य' को ब्राह्मण नत्रय भट्टने ईर्ष्यावश नष्ट करा दिया था। 1100 ई. में हुए जैन कवि मल्लना अपरनाम पावुलूरि ने ‘पावुलूरि गणित' रचा। कवि अघर्वण ने तेलुगु में एक छन्दशास्त्र और दो व्याकरण ग्रन्थों की रचना की थी। आधुनिक काल में वेदम वेंकट शास्त्री ने 'बोब्बिलियुद्धमु' नामक ऐतिहासिक नाटक और 'बोब्बिलिराजुकथा' की रचना की और डॉ. चिलुकूरि नारायणराव ने जैनधर्म पर तेलुगु में पुस्तक लिखी। मलयालम साहित्य के इतिहास में जैन कृतियों और कृतिकारों का उल्लेख सम्प्रति उपलब्ध नहीं है। उपसंहार इस प्रकार दक्षिण भारत को अनेक प्रकाण्ड विद्वान्, वाग्मी और प्रभावक जैन आचार्यों को जन्म देने का श्रेय है जिन्होंने जैनधर्म और संस्कृति के प्रचार-प्रसार में अभूतपूर्व योगदान दिया। 'पूज्यपाद' जैसे सम्मानसूचक विरुदों से विभूषित अकलंकदेव के 'प्रमाण संग्रह' का मंगल श्लोक कई शताब्दियों तक दक्षिण भारत के शिलालेखों तथा जैन एवं जैनेतर कृतियों में अपनाया गया। ___ अहिंसा को अपनाने वाले जैनधर्मानुयायी शत्रु राज्यों के प्रति शस्त्र उठाने में अक्षम रहे, जनसामान्य की इस आम धारणा का निरसन दक्षिण भारत के इतिहास से बखूबी होता है। वहां अनेक जैनधर्मानुयायियों ने न केवल राजसत्ताएं स्थापित की अपितु नैष्ठिक जैन रहते हुए भी अद्भुत शौर्य से रणभूमि में विपक्षियों के दांत खट्टे किये। दक्षिण में सर्वाधिक जीवि गंगवंशीय राज्य के संस्थापक दंद्दिग और माधव कोंगुणिवर्म जैनधर्मानुयायी थे। दसवीं शती ईस्वी में हुए गंग नरेशों के महामन्त्री एवं प्रधान सेनापति चामुण्डराय, जो ‘सम्यक्त्व रत्नाकर' जैसी उपाधियों से विभूषित थे, को रणभूमि में अनेक बार अपना हस्तकौशल दिखाने हेतु 'वैरिकुलकालदण्ड' जैसे विरुदों से सम्मानित किया गया था। मध्यकाल में मुसलमानी राज्य के कारण जब उत्तर भारत में दिगम्बर जैन साधुओं की परम्परा विच्छिन्न हो गयी थी। दक्षिण में जैन मुनि अपनी चर्या का पूर्ववत् पालन करते रहे थे। २०वीं शती ईस्वी के प्रथम पाद से ब्रिटिश शासन की कृपा से दिगम्बर जैन मुनियों का उत्तर भारत में भी पुन:पदार्पण हुआ। मूडबिद्री, हुम्मच और श्रवणबेलगोल के जैन मठ और वहां के भट्टारक सम्पूर्ण भारत में श्रद्धास्पद बने रहे। श्रवणबेलगोल में विन्ध्यगिरि के शिखर पर प्रतिष्ठापित गोम्मटेश्वर बाहुबलि का 57 फुट उत्तुंग प्रतिबिम्ब मूर्तिविज्ञान और रूपशिल्प की अनुपम कलाकृति है और विश्व के आश्चर्यों में परिगणित है। इस मूर्ति के अनुकरण पर न केवल दक्षिण में ही अपितु उत्तर भारत में भी कई स्थानों पर बाहुबलि की मूर्ति प्रतिष्ठापित की गयी। इस विशालकाय मूर्ति का मस्तकाभिषेक सामान्यतया 12 वर्ष के अन्तराल पर बड़ी धूमधाम से होता है जिसमें देश-विदेश से लाखों श्रद्धालु सम्मिलित होते हैं। यह कुम्भ मेलों की याद दिलाता है। फरवरी 2006 में होने वाले महामस्तकाभिषेक समारोह की कड़ी में प्रस्तुत विद्वद् संगोष्ठी आयोजित है। -15-1