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________________ उक्त गाथा और उसकी टीका दोनों ही गम्भीर मन्थन की अपेक्षा रखती हैं। सबसे मुख्य बात तो यह है कि 'ज्ञानी भी अज्ञान से'- गाथा का यह वाक्य एवं 'अज्ञानलव के आवेश से यदि ज्ञानवान् भी' टीका का यह वाक्य- ये दोनों ही वाक्य विरोधाभास-सा लिए हुए हैं। जब कोई व्यक्ति ज्ञानी है तो उसके अज्ञान कैसे हो सकता है? यद्यपि सम्यग्ज्ञानी के भी औदयिक अज्ञान होता है, अल्पज्ञानरूप अज्ञान होता है; तथापि इस अज्ञान के कारण परसमयपना सम्भव नहीं होता, क्योंकि यहां शुद्धसम्प्रयोग का अर्थ अरहन्तादि की भक्ति से अनुरञ्जित चित्तवृत्ति किया र साथ ही यह भी लिखा है कि इससे मोक्ष होता है - ऐसे अभिप्राय के कारण परसमयपना है। अतः यह सिद्ध ही है कि यहाँ औदयिक अज्ञान की बात नहीं है। यदि औदयिक अज्ञान की बात है नहीं और ज्ञानी के क्षायोपशमिक अज्ञान होता ही नहीं है तो फिर कौन-सा अज्ञान है ? भाई, यहाँ मुख्य रूप से मिथ्यादृष्टि को ही परसमय बताना है। इसी बात पर वजन डालने के लिए यहाँ यह कहा गया है कि जब अरहन्त की भक्ति से मक्ति प्राप्त होती है - इस अभिप्राय वाले भी परसमय कहे जाते हैं तो फिर विषय-कषाय में सुखबुद्धि से निरंकुश प्रवृत्ति करने वाले तो परसमय होंगे ही। वस्तुतः तो यहाँ चारित्र के दोष पर ही वजन है, श्रद्धा या ज्ञान के दोष पर नहीं; भले ही अज्ञान शब्द का प्रयोग किया हो, पर साथ ही ज्ञानी शब्द का भी प्रयोग है न? तथा यह भी लिखा है कि रागलव के सद्भाव के कारण परसमयरत है। यहाँ 'रागलव के सद्भाव के कारण' - यह वाक्य विशेष ध्यान देने योग्य है। __यही कारण है कि आचार्य अमृतचन्द्र को उन्हें परसमय कहने में संकोच का अनुभव हो रहा है। उनका यह संकोच इस रूप में व्यक्त हुआ है कि वे कहते हैं यह सूक्ष्मपरसमय का कथन है। यद्यपि गाथा में ऐसा कोई भेद नहीं किया है, तथापि अमृतचन्द्र टीका के आरम्भ में ही यह बात लिखते हैं। __'श्रद्धा के दोषवाले मिथ्यादृष्टि स्थूलपरसमय और चारित्र के दोषवाले सराग सम्यग्दृष्टि सूक्ष्मपरसमय हैं' - इस प्रकार का भाव ही इसी गाथा की टीका में आचार्य जयसेन ने व्यक्ति किया हैं। उनके मूल कथन का भाव इस प्रकार है- “कोई पुरुष निर्विकार शुद्धात्मभावना लक्षणवाले परमोपेक्षासंयम में स्थित होने में अशक्त होता हुआ काम-क्रोधादि अशुद्ध (अशुभ) परिणामों से बचने के लिए तथा संसार की स्थिति का छेद करने के लिए जब पञ्चपरमेष्ठी का गुणस्तवन करता है, भक्ति करता है, तब सूक्ष्मपरसमयरूप परिणमित होता हुआ सराग सम्यग्दृष्टि होता है, और यदि शुभोपयोग से ही मोक्ष होता है- ऐसा एकान्त से मानता है तो स्थूलपरसमयरूप परिणाम से स्थूल परसमय होता हुआ अज्ञानी मिथ्यादृष्टि होता है।" उक्त कथन में मिथ्यादृष्टि को स्थूलपरसमय और सराग सम्यग्दृष्टि को सूक्ष्मपरसमय कहा है। इससे यह सहज ही फलित होता है कि वीतराग सम्यग्दृष्टि स्वसमय हैं। पञ्चास्तिकाय की गाथा 165 से 169 तक पाँच गाथाओं में शुभराग में धर्मबुद्धि का और शुभरागरूप परिणति का बड़ी ही निर्दयता से निषेध किया गया है। ऐसे जीवों को परसमय कहकर स्वसमय बनने की प्रेरणा दी गयी है। -14
SR No.032866
Book TitleJain Vidya Ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain
PublisherGommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
Publication Year2006
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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