________________ आचार्य कुन्दकुन्द और उनकी टीकाकारों की दृष्टि में स्वसमय और परसमय - डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल, जयपुर मूलसंघ के प्रतिष्ठापक आचार्य कुन्दकुन्ददेव जिन-अध्यात्म-परम्परा के शिरमौर हैं। दिगम्बर जिन-परम्परा में भगवान् महावीर और गणधर गौतम के तत्काल बाद नामोल्लेखपूर्वक एकमात्र उन्हें ही स्मरण किया जाता मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी। मंगलं कुन्दकुन्दाद्यो जैनधर्मोऽस्तु मंगलम्।। शास्त्र प्रवचन आरम्भ करने के पूर्व विद्वानों द्वारा बोले जाने वाले उक्त छन्द में आचार्य कुन्दकुन्द को नामोल्लेखपूर्वक स्मरण करके शेष आचार्यों को 'आदि' शब्द में शामिल कर लिया गया है। जिस प्रकार हाथी के पैर में सभी पशुओं के पैर समाहित हो जाते हैं; उसी प्रकार आचार्य कुन्दकुन्द में सम्पूर्ण दिगम्बर जिन आचार्य-परम्परा समाहित हो जाती है। समस्त परवर्ती आचार्य स्वयं को मूलसंघ की आचार्य कुन्दकुन्द अपनी सर्वाधिक लोकप्रिय कृति समयसार की दूसरी ही गाथा में स्वसमय और परसमय को परिभाषित करते हुए लिखते हैं जीवो चरित्तदंसणणाणट्ठिदो तं हि ससमयं जाण। पोग्गलकम्मपदेसट्ठिदं च तं जाण परसमय।। 2 / / (हरिगीत) सद्ज्ञानदर्शनचरित परिणत जीव ही हैं स्वसमय। जो कर्मपुद्गल के प्रदेशों में रहें वे परसमय।।२।। जो जीव दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र में स्थित हैं; उन्हें स्वसमय जानो और जो जीव पुद्गलकर्म के प्रदेशों में स्थित हैं; उन्हें परसमय जानो। मूल गाथा में तो स्वसमय और परसमय को ही परिभाषित किया गया है, पर आचार्य अमृतचन्द्र और जयसेन पहले समय का स्वरूप स्पष्ट करते हैं, उसके बाद स्वसमय और परसमय को समझाते हैं। स्वभाव में स्थित जीव स्वसमय हैं और परभाव में स्थित जीव परसमय हैं। स्वसमय और परसमय दोनों अवस्थाओं में व्यापक प्रत्यगात्मा समय है। यहाँ 'समय' शब्द का अर्थ परद्रव्यों और उनके गुणों-पर्यायों से अत्यन्त भिन्न, ज्ञान-दर्शनस्वभावी, - 145 -