________________ से रहें और गुरु की आज्ञा का पालन करें। अच्छे गुरु होने के नाते दूरदृष्टा आचार्य भद्रबाहु ने 12 वर्ष के अकाल को भाँपकर सभी शिष्यों को दक्षिणापथ पर जाने का निर्देश दिया। जो उनका कहा माने वे अचेलक-परम्परा पर चलते रहे। पर जो न मान पाये वे सचेलक-परम्परा के मार्गी बने। __ आज जो जैन-संस्कृति के संरक्षक के रूप में हमारा विशाल साहित्य उपलब्ध है वह भी आचार्य भद्रबाहु की ही देन है। उनकी शिष्य-परम्परा के चलते द्वादशांग जिनवाणी के एकमात्र बचे अंश को धारसेनाचार्य के माध्यम से जीवन्त बनाये रखा। आज उपलब्ध समस्त जैन-साहित्य उन्हीं की दूरदृष्टि का सुफल है। .. श्रुतकेवली भद्रबाहु ने द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष के कारण जैनधर्म के प्रचारार्थ जब दक्षिण भारत की ओर प्रयाण किया तब अपनी आयु को क्षीण जानकर श्रवणबेलगोला में संघ को आदेश दिया कि वे विशाखाचार्य के नेतृत्व में चोल और पाण्डय देशों में जाकर प्रचार का कार्य करें। यह थी एक जैन-संस्कृति को समर्पित तपस्वी की अनुपम वृत्ति जिन्होंने अपनी आयु क्षीण होने पर भी जैन-संस्कृति का प्रचार-प्रसार न रुके, पूरे देश में यह फैले, इसलिए अपने योग्य शिष्यों को इस कार्य में लगा दिया। जैन संस्कृति का प्रमुख लक्ष्य व्यक्ति और समाज को एक अहिंसक, शान्तिप्रिय, निर्भीक, सौहार्दपूर्ण, सृजनोन्मुख जीवनशैली प्रदान करना है। वैचारिक सहिष्णुता इस संस्कृति का जीवन मूल्य है। पारस्परिक विश्वास और प्रेम इस संस्कृति का आधारस्तम्भ है, अत: जैनधर्म प्राचीनकाल से आज तक समय के थपेड़ों को सहिष्णु होकर सहता चला आ रहा है और निश्चित रूप से श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु का इसमें प्रमुख अवदान है। -122