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________________ श्रवणबेलगोला तीर्थ दो पहाड़ों एवं तलहटी में नगर इस तरह से बना हुआ है। इन दो पहाड़ों को छोटा पहाड़, बड़ा पहाड़ से भी जाना जाता है। इसका प्राचीनतम नाम कटवप्र के रूप में प्रचलित था। छोटा पहाड़ जो वर्तमान में चन्द्रगिरी के नाम से जाना जाता है। श्रवणबेलगोला का सबसे प्राचीन पुरातत्त्व की वास्तु है। इस पहाड़ पर करीब 274 शिलालेख है और बड़े पहाड़ जो विन्ध्यगिरि के नाम से वर्तमान में विख्यात है, पर करीब 172 शिलालेख तथा नगर में करीब 80 शिलालेख है। 33 शिलालेख नगर के आस-पास पाये गये है। ये सभी आलेख ई.स. 600 से १९वीं सदी तक के पाये जाते है। १०वीं सदी के पहले के उकेरित सभी शिलालेख छोटे पहाड़ पर चन्द्रगिरि पर पाये गये है। बड़े पहाड़ पर ई.स. 980 के पूर्व का कोई शिलालेख नहीं मिलता। नगर के शिलालेख ई.स. १२वीं शताब्दी के और उसके बाद के मिलते है। ये शिलालेख पहाड़ की चट्टानें पर, स्तम्भों पर, मानस्तम्भों पर, मन्दिर के बाहरी हिस्सों पर, शिला तथा मूर्तियों पर अंकित किये गये है। बहुत से शिलालेख पत्थरों पर उत्कीर्णित है। सबसे लम्बा तथा अलंकृत शिलालेख स्तम्भों पर छोटे पहाड़ पर मिलता है। यह पहाड़ चन्द्रगिरि पूर्व में चिक्कबेट्टा नाम से भी जाना जाता था। बड़ा पहाड़ दाड्डबेट्टा के नाम से प्रसिद्ध था। __इन शिलालेखों में छोटे पहाड़ पर अत्यन्त प्राचीन वह लेख है जो अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु एवं सम्राट चन्द्रगुप्त सहित बारह हजार शिष्यों के साथ यहाँ आगमन का परिचय देता है। यह शिलालेख पहाड़ पर पार्श्वनाथ मन्दिर के दायी तरफ चट्टान पर उत्कीर्णित है। संत मल्लिसेन सम्बन्धित जो स्मारकस्तम्भ है वह तो कलापूर्ण है। यह पार्श्वनाथ बसदी (मन्दिर) में है। प्रसिद्ध दानवीर महिला शान्तलादेवी की माँ के सम्बन्ध में एक और स्मारकस्तम्भ है जो सबसे लम्बा है और बड़ा है। 229 और 223 पंक्तियों में अंकित है। कवि रत्नश्री और कवि श्री नागवर्म का उल्लेख करने वाले आलेख सबसे छोटे है। सबसे मोटे अक्षरों में उत्कीर्णित लेख लोकोत्तर भगवान् बाहुबली के वल्मीक पर है। देशभर के अत्यन्त प्राचीन मराठी शिलालेख के रूप में वल्मीक लेख को देखा जाता है। इन सभी शिलालेखों को ई.स. 1973 में मैसूर विश्वविद्यालय के तत्त्वावधान में कन्नड़ अध्ययन संस्थान ने ‘एपिग्राफिक कर्नाटिका' वाल्यूम 2, तीसरा संस्करण के रूप में व्यवस्थित संगृहीत कर प्रकाशित किया है। ‘एपिग्राफिक कर्नाटिका' संस्करण 1973 में इन सबका अंग्रेजी अनुवाद सहित प्रकाशन हुआ है। ई.स. पूर्व तीसरी शताब्दी में अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु ने प्राप्त संकेतों से उत्तर में 12 वर्ष का भयंकर सूखे का आभास पाकर उत्तर के उज्जैयनी से बारह हजार मुनियों एवं सम्राट चन्द्रगुप्त सहित विहार कर कटवप्र छोटे पहाड़ पर ठहर जाने का उल्लेख इसी पहाड़ पर ई.स. छठी शताब्दी में उत्कीर्णत शिलालेख से मिलता है। श्री बी.एल. राइस द्वारा इस शिलालेख को प्रकाशित करने के बाद यह प्रमाणित हो गया कि मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य जैन राजा थे जिसने दिगम्बरी दीक्षा अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु से ग्रहण कर इसी स्थान पर समाधि मरण किया था, जिसके बारे में इतिहासवेत्ता न मालूम अब तक मौन क्यों हैं? इन शिलालेखों में अधिकतर ऐसे शिलालेख हैं जिनमें साधुओं, आर्यिकाओं, श्रावक, श्राविकाओं के -131 -
SR No.032866
Book TitleJain Vidya Ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain
PublisherGommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
Publication Year2006
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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