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________________ वर्ष तपस्या करते हुए व्यतीत हो गया और केवलज्ञान उत्पन्न नहीं हो रहा था उस समय ब्राह्मी और सुन्दरी को उपदेश देने हेतु भगवान् ऋषभदेव ने भेजा, ऐसा उल्लेख है। जो उन्हें 'हे वीर! हाथी से नीचे उतरो' का उपदेश देती हैं और बाहुबली को एकाएक केवल ज्ञान प्राप्त होता है। दिगम्बर सम्प्रदाय में यह उल्लेख है कि एक वर्ष तक भगवान् बाहुबली ने घोर तपस्या की। उन्होंने अपने कर्मों को काटने के हेतु समस्त 22 परिषहों को सहा और उन पर विजय प्राप्त की। उन्हें मनःपर्याय ज्ञान तक का चतुर्थ ज्ञान भी हो गया लेकिन उनके मन में यह शल्य थी कि 'वह भरतेश्वर मुझसे संक्लेष को प्राप्त हुआ है अर्थात् मेरे निमित्त से उसे दुःख पहुँचा है- यह विचार बाहुबली के हृदय में विद्यमान रहता था।' जैसे ही भरत योगी बाहुबली की पूजा करते हैं तो बाहुबली का मन निश्चिन्त हो जाता है, विद्यमान शल्य दूर होती है और उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति होती है। ऐसे केवलज्ञानी की भरत बड़े ही भक्तिभाव से पूजा करते हैं। वह अनेक प्रकार से उनकी स्तुति करता है। बाहुबली अपनी इस तपस्या के दौरान अनेक ऋद्धियों को भी प्राप्त करते हैं। इसी प्रकार बाहुबली का अपने राज्य में भगवान् ऋषभदेव से मिलने जाना उनके न मिलने पर विलाप करना एवं मन्त्री के समझाने पर चरणपादुका की स्थापना व पूजा करना आदि उल्लेख दिगम्बर ग्रन्थों में नहीं है। कृति में सबसे महत्त्वपूर्ण अंश है कथोपकथन के, जो भरत के दूत और बाहुबली के बीच एवं युद्ध के समय भरत और बाहुबली के बीच हुए। कृति की दूसरी सबसे बड़ी विशेषता है इसकी वर्णनशैली। कवि ने भगवान् ऋषभदेव, भरत, बाहुबली, नगर, सेना, चक्ररत्न इन सबका बड़ा ही मनोहारी आलङ्कारिक भाषा में वर्णन किया है जिसके अंश पढ़ने से मन प्रसन्न हो जाता है और सबसे बड़ी बात तो यह है कि भाषा वर्णन के अनुरूप है और उसका शब्द चयन ऐसा है कि जैसे पूरा चित्र ही सामने खड़ा हो जाता है। हमें महसूस होता है जैसे हम स्वयं यह सब देख रहे हों। जिन चार प्रकार के युद्धों का वर्णन किया है उसका वर्णन बड़ा ही हृदयङ्गम करने वाला है। कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े बाहुबली की मुनि मुद्रा का वर्णन देखिए– “दुष्कर्मरूपी गहन जंगल में अत्यन्त निर्मल ध्यान अग्नि द्वारा कर्मों को जलाते हुए बाहुबली दावानल की विषम किरणों को सहन करने लगे। वे ग्रीष्म ऋतु की उड़ती धूल से ढक गये, परन्तु अन्तःकरण को पङ्करहित बना दिया। भयङ्कर मेघ वर्षा भी उनको चलित नहीं कर सकी। उनके चरणों के नीचे बहती हुई जल की धारा उनके चरणों को भिगो रही थी मानो कृष्ण और नील लेश्यायें उनसे दूर नहीं होना चाहती थीं। उनकी स्थिर देह हिमालय की स्थिरता से स्पर्धा कर रही थी। छह ऋतुओं में से कोई भी ऋतु उन्हें चलित नहीं कर सकी। देह के आसपास लतायें चढ़ गयी। लगता था जैसे मुक्तिरूपी स्त्री के नीलकमल की कान्ति से नेत्र कटाक्ष से व्याप्त हो गये हो, ऐसे वे सुशोभित हो रहे थे। उनके शरीर में पशु-पक्षियों ने अपने घोंसले बना दिये।" कृति में वर्णन के साथ-साथ कवि ने आध्यात्मिक भावों को अधिक महत्त्व दिया है। चूँकि कृतिकार स्वयं जैन सन्त है। अत: प्रत्येक वर्णन में उनका लक्ष्य आध्यात्म का ही वर्णन रहा है और रस में भी शान्तरस ही प्रमुख रहा है। कवि ने अनेक अलङ्करों का प्रयोग किया है जिनमें उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, मानवीकरण आदि उल्लेखनीय हैं। अनेक सूक्तिवाक्य इसके महत्त्वपूर्ण अंश हैं। पूरी कृति में ये भाव सर्वत्र बिखरे हुए हैं। अनेक उदाहरणों में से एक उदाहरण देखिए जब बाहुबली को आत्मग्लानि होती है तो वे सोचते हैं कि - 'अब मुझे .-103 -
SR No.032866
Book TitleJain Vidya Ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain
PublisherGommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
Publication Year2006
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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