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________________ 35 ध्यान-द्वात्रिंशिका '. सारे विवाद एवं कलहों के मूल में दो तत्त्व विद्यमान हैं—कामनाओं में प्रासक्ति एवं अपनी-अपनी दृष्टि के प्रति अाग्रह / कामनाओं की आसक्ति के कारण गृहस्थ संसार में फंसे रहते हैं। विभिन्न मत-मतान्तरों के प्रति प्राग्रह के कारण प्रवजित संन्यासी संसार-चक्र में परिभ्रमण करते रहते हैं। तात्पर्य यह है कि वेदना-आस्वाद के कारण गृहस्थ एवं विपरीत संज्ञाओं के कारण प्रव्रजित संन्यासी संसार में चक्र काटते रहते हैं। इसीलिए भगवान् बुद्ध ने वेदना और संज्ञा का स्वतन्त्र धर्मों (पदार्थों) के रूप में उपदेश दिया है। ययार्थं वा स्यात् संबंधः शब्दादीन्द्रियचेतसाम् / तदस्य जगतः सत्त्वमात्मप्रत्यक्षलक्षणम् // 14 // (अब ग्रंथकार उपर्युक्त मन्तव्यों की समीक्षा के प्रसंग में कहते हैं-) विषय, इन्द्रिय एवं विज्ञान यथार्थ हैं। 'प्रतीत्य समुत्पन्न" होने से वे अयथार्थ सिद्ध नहीं होते। किसी दृष्टि से अयथार्थ माने भी जायें तो भी वैकल्पिक रूप से इन्हें यथार्थ मानना युक्तिसंगत है। इस जगत् का अस्तित्व प्रात्म-प्रत्यक्ष है, अतः इसका अपलाप नहीं किया जा सकता है। अपने मौलिक मन्तव्य को सुरक्षित रखते हुए भी अनेकान्तवाद, प्रतीत्यसमुत्पादवाद एवं मायावाद काफी निकट पहुंचते हैं। अनेकान्तवाद वस्तु के स्वरूप का अपलाप नहीं करता है। परन्तु साथ ही साथ यह भी स्वीकार करता है कि वस्तु का जो स्वरूप दृष्टिगोचर होता है, वह हमारी स्थूल-इन्द्रिय एवं ज्ञानशक्ति सापेक्ष है। स्थूल इन्द्रियों द्वारा निरपेक्ष सत्य का ज्ञान संभव नहीं। अतः इस अर्थ में हमारे ज्ञान का विषयभूत समस्त जगत् एक प्रकार से माया जैसा ही है। सत्कार्यवादी सांख्ययोगदर्शन ने भी गुणों के पारमार्थिक स्वरूप को अज्ञात ही माना है, जैसा कि इस कारिका से स्पष्ट है गुणानां परमं रूपं न दृष्टिपथमच्छति / यत्तु दृष्टिपथं प्राप्तं तन्मायेव सुतुच्छकम् / / पातञ्जल योगदर्शन भाष्य (IV. 13) में उद्धृत इसी प्रकार वौद्धदर्शन का "प्रतीत्यसमुत्पाद" भी प्रतीयमान धर्मों को परस्पर उत्पन्न होने के कारण शून्य मानता हुअा भी उनका ऐकान्तिक नास्तित्व स्वीकार नहीं कर सकता। तात्पर्य यह है कि अनेकान्तवाद, मायावाद एवं प्रतीत्यसमुत्पादवाद स्थूल दृष्टि से एक दूसरे के विरोधी होने पर भी सूक्ष्मद्रष्टा के लिए इनका विरोध क्रमश: विलीन होता जाता है। द्रव्यपर्यायसंकल्पश्चेतस्तद्व यञ्जकं वचः / तद्यथा यच्च यावच्च निरवद्येति योजना // 15 // (चित्त एवं वचन की परिभाषा देते हुए ग्रंथकार कहते हैं) द्रव्य एवं पर्यायों का ज्ञान ही चेतस् है एवं उस ज्ञान की व्यञ्जना ही वचन है। चित्त एवं वचन दोनों यथार्थ हैं। वे द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से सिद्ध हैं। इस प्रकार द्रव्य पर्याय संबन्धी
SR No.032865
Book TitleJaina Meditation Citta Samadhi Jaina Yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1986
Total Pages170
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Book_English
File Size12 MB
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